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प्रेम-द्वादशी

होकर उनका सम्मान किया। खाँ बहादुर बोले—कहिये पण्डितजी मिज़ाज तो अच्छे हैं? वल्लाह, आप नुमाइश में रखने के क़ाबिल आदमी हैं। आपका वज़न दस मन से कम तो न होगा?

राय साहब—एक मन इल्म के लिए दस मन अक्ल चाहिए। उसी कायदे से एक मन अक्ल के लिए दस मन का जिस्म ज़रूरी है; नहीं तो उसका बोझ कौन उठावे?

राजा साहब—आप लोग इसका मतलब नहीं समझते। बुद्धि एक प्रकार का नज़ला है; जब दिमाग़ में नहीं समाती, तो जिस्म में आ जाती है।

खाँ साहब—मैंने तो बुजुर्गों की ज़बानी सुना है, कि मोटे आदमी अक्ल के दुश्मन होते हैं।

राय साहब—आपका हिसाब कमज़ोर था; वर्ना आपकी समझ में इतनी बात ज़रूर आती, कि अक्ल और जिस्म में एक और दस की निस्बत है, तो जितना ही मोटा आदमी होगा, उतना ही उसकी अक्ल का वज़न भी ज़्यादा होगा।

राजा साहब—इससे यह साबित हुआ, कि जितना ही मोटा आदमी उतनी ही मोटी उसकी अक्ल।

मोटेराम—जब मोटी अक्ल की बदौलत राज-दरबार में पूछ होती है, तो मुझे पतली अक्ल लेकर क्या करना है?

हास-परिहास के बाद राजा साहब ने वर्तमान समस्या पंडितजी के सामने उपस्थित की, और उसके निवारण का जो उपाय सोचा था, वह भी प्रकट किया। बोले—बस, यह समझ लीजिये, कि इस साल आपका भविष्य पूर्णतया अपने हाथों में है। शायद किसी आदमी को अपने भाग्य-निर्णय का ऐसा महत्त्व-पूर्ण अवसर न मिला होगा। हड़ताल न हुई, तो और कुछ नहीं कह सकते, आपको जीवन-भर किसी के दरवाज़े जाने की ज़रूरत न होगी। बस, ऐसा कोई व्रत ठानिये, कि शहरवाले थर्रा उठे। कांग्रेसवालों ने धर्म का अवलंबन करके इतनी शक्ति बढ़ाई है। बस, ऐसी कोई युक्ति निकालिये, कि जनता के धार्मिक भावों को चोट पहुँचे।