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प्रेम-द्वादशी


मोटे॰—जभी इनमें इतनी सुगन्ध है, ज़रा खोलिये तो!

मन्त्री ने मुसकिराकर दोना खोल दिया, और पंडितजी नेत्रों से मिठाइयाँ खाने लगे। अन्धा आँखें पाकर भी संसार को ऐसे तृष्णा-पूर्ण नेत्रों से न देखेगा। मुँह में पानी भर आया। मन्त्रीजी ने कहा—आपका व्रत न होता, तो दो-चार मिठाइयाँ आपको चखाता। पाँच रुपए सेर के दाम दिये हैं।

मोटे॰—तब तो बहुत ही श्रेष्ठ होंगी। मैंने बहुत दिन हुए, कलाकंद नहीं खाया।

मन्त्री—आपने भी तो बैठे-बिठाये झंझट मोल ले लिया। प्राण ही न रहेंगे, तो धन किस काम आवेगा।

मोटे॰—क्या करूँ, फँस गया। मैं इतनी मिठाइयों का जलपान कर जाता था। (हाथ से मिठाइयों को टटोलकर) भोला की दुकान की होंगी।

मन्त्री—चखिये दो-चार।

मोटे॰—क्या चखूँ, धर्म-संकट में पड़ा हूँ।

मन्त्री—अजी चखिये भी। इस समय जो आनन्द प्राप्त होगा, वह लाख रुपए में भी नहीं मिल सकता। कोई किसी से कहने जाता है क्या?

मोटे॰—मुझे भय किसका है? मैं यहाँ दाना-पानी बिना मर रहा हूँ, और किसी को पर्वा ही नहीं। तो फिर मुझे क्या डर? लाओ इधर दोना बढ़ाओ। जाओ सबसे कह देना शास्त्रीजी ने व्रत तोड़ दिया। भाड़ में जाय बज़ार और व्यापार! यहाँ किसी की चिन्ता नहीं। जब किसी में धर्म नहीं रहा, तो मैंने ही धर्म का ठीका थोड़े उठाया है।

यह कहकर पंडितजी ने दोना अपनी तरफ खींच लिया और लगे बढ़-बढ़कर हाथ मारने। यहाँ तक कि एक पल में आधा दोना समाप्त हो गया। सेठ लोग आकर फाटक पर खड़े थे। मन्त्री ने जाकर कहा—ज़रा चलकर तमाशा देखिये। आप लोगों को न बाज़ार खोलना