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सत्याग्रह

पड़ गये थे। यहाँ तक कि आँखें भी न खुलती थीं। उन्हें खोलने की बार-बार चेष्टा करते; पर वे आप-ही-आप बंद हो जातीं। ओंठ सूख गये थे। जिन्दगी का कोई चिह्न था, तो बस, उनका धीरे-धीरे कराहना। ऐसा घोर संकट उनके ऊपर कभी न पड़ा था। अजीर्ण की शिकायत तो उन्हें महीने में दो-चार बार हो जाती थी, जिसे वह हड़ आदि की फंखियों से शांत कर लिया करते थे; पर अजीर्णावस्था में ऐसा कभी न हुआ था, कि उन्होंने भोजन छोड़ दिया हो। नगर-वासियों को, अमन-सभा को, सरकार को, ईश्वर को, कांग्रेस और धर्मपत्नी को जी भरकर कोस चुके थे। किसी से कोई आशा न थी। अब इतनी शक्ति भी न रही थी, कि स्वयं खड़े होकर बाज़ार जा सकें। निश्चय हो गया था, कि आज रात को अवश्य प्राण-पखेरू उड़ जायँगे। जीवन-सूत्र कोई रस्सी तो है नहीं, कि चाहे जितने झटके दो टूटने का नाम न ले।

मंत्रीजी ने पुकारा—'शास्त्रीजी?' मोटेराम ने पड़े-पड़े आँखें खोल दीं, उनमें ऐसी करुण-वेदना भरी हुई, जैसे किसी बालक के हाथ से कौना मिठाई छीन ले गया हो।

मंत्रीजी ने दोने की मिठाई सामने रख दी, और झंझर पर कुल्हड़ औंधा दिया। इस काम से सुचित होकर बोले—यहाँ कब तक पड़े रहियेगा?

सुगन्ध ने पण्डितजी की इन्द्रियों पर संजीवनी का काम किया। पण्डितजी उठ बैठे, और बोले—देखें कब तक निश्चय होता है।

मन्त्री—यहाँ कुछ निश्चय-विश्चय न होगा। आज दिन-भर पंचायत हुआ की, कुछ तय न हुआ। कल कहीं शाम को लाट साहब आवेंगे। तब तक तो आपकी न जाने क्या दशा होगी। आपका चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है।

मोटे॰—यहीं मरना बदा होगा तो कौन टाल सकता है? इस दोने में कलाकंद है क्या?

मन्त्री—हाँ, तरह-तरह की मिठाइयाँ हैं। एक नातेदार के यहाँ बैना भेजने के लिए विशेष रीति से बनवाई है।