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प्रेम-पंचमी

बात पर गालियाँ बकनेवाला। एक हरा-भरा पौधा, प्रेम में लावित, स्नेह से सिचित; दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लवहीन नववृक्ष, जिसकी जड़ो को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठंडी होती; दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती।

आश्चर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेश-मात्र भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही एक हरियाली थी। ईर्ष्या साम्य-भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से कही ऊँँचा, कही भाग्यशाली समझता। उसमे ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था।

घृणा से घृणा उत्पन्न होती है; प्रेम से प्रेम। ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था। कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद-विवाद कर बैठता। कहता―भैया की अचकन फट गई है, आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देती? माँ उत्तर देती―उसके लिये वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा फिरेगा। ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेब-ख़र्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे, पर सत्य- प्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शांतिमय आनंद का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिये वह सद्भावों के