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गृह-दाह

देवप्रिया―क्या कलकत्ते जाओगे?

ज्ञान॰―जी हाँ।

देवप्रिया―उन्हीं को क्यों नहीं बुलाते?

ज्ञान॰―उन्हे कौन मुँह लेकर बुलाऊँ? आप लोगों ने तो पहले ही मेरे मुँह में कालिख लगा दी है। ऐसा देव-पुरुष आप लोगों के कारण विदेश में ठोकर खा रहा है, और मैं इतना निर्लज्ज हो जाऊँ कि....

देवप्रिया―अच्छा चुप रह, नहीं ब्याह करना है, न कर, जले पर लोन मत छिड़क! माता-पिता का धर्म है, इसलिये कहती हूँ, नहीं तो यहाँ ठेगे को परवा नहीं है। तू चाहे ब्याह कर, चाहे क्वाँरा रह; पर मेरी आँखों से दूर हो जा।

ज्ञान॰―क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गई?

देवप्रिया―जब तू हमारे कहने ही में नहीं, तो जहाँ चाहे रह। हम भी समझ लेगे कि भगवान् ने लड़का ही नहीं दिया।

देव॰―क्यों व्यर्थ ऐसे कटु वचन बोलती हो?

ज्ञान॰―अगर आप लोगों की यही इच्छा है, तो यही होगा। देवप्रकाश ने देखा कि बात का बतंगड़ हुआ चाहता है, तो ज्ञानप्रकाश को इशारे से टाल दिया, और पत्नी के क्रोध को शांत करने की चेष्टा करने लगे। मगर देवप्रिया फूट-फूटकर रो रही थी, बार-बार कहती थी―मैं इसकी सूरत न देखूँगी। अंत मे देवप्रकाश ने चिढ़कर कहा―तो तुम्ही ने तो कटु वचन कहकर उसे उत्तेजित कर दिया।