पृष्ठ:प्रेम-पंचमी.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११२
प्रेम-पंचमी

देवप्रिया―यह सब विष उसी चांडाल ने बोया है, जो यहाँ से सात समुद्र-पार बैठा हुआ मुझे मिट्टी में मिलाने का उपाय कर रहा है। मेरे बेटे को मुझसे छीनने हो के लिये उसने यह प्रेम का स्वाँग भरा है। मैं उसकी नस नस पहचानती हूँ। उसका यह मंत्र मेरी जान लेकर छोड़ेगा; नहीं तो मेरा ज्ञानू, जिसने कभी मेरी बात का जवाब नहीं दिया, यों मुझे न जलाता।

देव॰―अरे, तो क्या वह विवाह ही न करेगा! अभी ग़ुस्से में अनाप-शनाप बक गया है। जरा शांत हो जायगा, तो मैं समझाकर राजी कर दूँँगा।

देवप्रिया―मेरे हाथ से निकल गया।

देवप्रिया की आशंका सत्य निकली। देवप्रकाश ने बेटे को बहुत समझाया। कहा―तुम्हारी माता इस शोक में मर जायगी; किंतु कुछ असर न हुआ। उसने एक बार 'नहीं' कह- कर 'हाँ' न की। निदान वह भी निराश होकर बैठ रहे।

तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा, पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा। माता का रोना-धोना निष्फल हुआ। हाँ, उसने माता की एक बात मान ली―वह भाई से मिलने कलकत्ते न गया।

तीन साल में घर में बड़ा परिवर्तन हो गया। देवप्रिया की तीनो कन्याओं का विवाह हो गया। अब घर में उसके सिवा कोई स्त्री न थी। सूना घर उसे खाए लेता। जब वह नैराश्य और क्रोध से व्याकुल हो जाती, तो सत्यप्रकाश को ख़ूब जी-