पृष्ठ:प्रेम-पंचमी.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११९
गृह-दाह

लगता। उनका बात-बात पर त्योरियाँ बदलना, माता के मिथ्यापवादी पर विश्वास करना―हाय! मेरा सारा जीवन नष्ट हो गया! तब वह करवट बदल लेता, और फिर वही दृश्य आँखों में फिरने लगते। फिर करवट बदलता और चिल्ला उठता―इस जीवन का अंत क्यों नहीं हो जाता!

इस भाँति पड़े-पड़े उसे कई दिन हो गए। संध्या हो गई थी कि सहसा उसे द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने कान लगाकर सुना और चौक पड़ा―कोई परि- चित आवाज थी। दौड़ा, द्वार पर आया, तो देखा, ज्ञानप्रकाश खड़ा है। कितना रूपवान् पुरुष था! वह उसके गले से लिपट गया। ज्ञानप्रकाश ने उसके पैरों को स्पर्श किया। दोनो भाई घर में आए। अंधकार छाया हुआ था। घर की यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलाई। घर क्या था, भूत का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखे देखता और रोता था।

सत्यप्रकाश―मैं आजकल बीमार हूँ।

ज्ञानप्रकाश―यह तो देख ही रहा हूँ।

सत्य॰―तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?

ज्ञान॰―सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा।