रुचि भी इस काम की ओर थी, पर मानकी के भय से वह इस विचार को जबान पर न ला सके थे। इसी चिंता में दो साल गुज़र गए, और यहाँ तक नौबत पहुँची कि या तो “गौरव” का टाट उलट दिया जाय, या उसे फिर सँभाला जाय। ईश्वर- चंद्र ने इसके पुनरुद्धार के लिये अंतिम उद्योग करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। इसके सिवा और कोई उपाय न था। यह पत्रिका उनके जीवन का सर्वस्व थी। उसे बंद करने की वह कल्पना भी न कर सकते थे। यद्यपि उनका स्वास्थ्य अच्छा न था, पर प्राण-रक्षा की स्वाभाविक इच्छा ने उन्हें अपना सब कुछ अपनी पत्रिका पर न्योछावर करने का उद्यत कर दिया। फिर दिन-के-दिन लिखने पढ़ने में रत रहने लगे। एक क्षण के लिये भी सिर न उठाते। “गौरव” के लेखो में फिर सजीवता का उद्भव हुआ, विद्वज्जनो में फिर उसकी चर्चा होने लगी, सहयोगियो ने फिर उसके लेखो को उद्धृत करना शुरू किया, पत्रिकाओं में फिर उसको प्रशंसा-सूचक आलोचनाएँ निकलने लगी। पुराने उस्ताद को ललकार फिर अखाड़े में गूँजने लगी।
लेकिन पत्रिका के पुनः संस्कार के साथ उनका शरीर और भी जर्जर होने लगा। हृद्-रोग के लक्षण दिखाई देने लगे। रक्त न्यूनता से मुख पर पीलापन छा गया। ऐसी दशा में वह सुबह से शाम तक अपने काम में तल्लीन रहते। देश में धन और श्रम का संग्राम छिड़ा हुआ था। ईश्वरचंद्र की सदय प्रकृति ने उन्हें श्रम का सपक्षी बना दिया था। धन-वादियों का