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प्रेम-पंचमी

खंडन और प्रतिवाद करते हुए उनके ख़ूब में गरमी आ जाती थी, शब्दों से चिनगारियाँ निकलने लगती थीं, यद्यपि ये चिन- गारियाँ केंद्रस्थ गरमी अंत का किए देती थीं।

एक दिन रात के दस बज गए थे। सरदी ख़ूब पड़ रही थी। मानकी दबे-पैर उनके कमरे में आई। दीपक की ज्योति में उनके मुख का पीलापन और भी स्पष्ट हो गया था। वह हाथ में कलम लिए किसी विचार में मग्न थे। मानकी के आने की उन्हें ज़रा भी आहट न मिली। मानकी एक क्षण तक उन्हें वेदनायुक्त नेत्रों से ताकती रही। तब बोली―“अब तो यह पोथा बंद करो। आधी रात होने को आई। खाना पानी हुआ जाता है।”

ईश्वरचंद्र ने चौककर सिर उठाया, और बोले―‘क्यो क्या आधी रात हो गई? नहीं, अभी मुश्किल से दस बजे होंगे। मुझे अभी ज़रा भी भूख नहीं है।”

मानकी―कुछ थोड़ा-सा खा लेना।

ईश्वर॰―एक ग्रास भी नहीं। मुझे इसी समय अपना लेख समाप्त करना है।

मानकी―मैं देखती हूँ, तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती है, दवा क्यों नहीं करते? जान खपाकर थोड़े ही काम किया जाता है।

ईश्वर॰―अपनी जान को देखूँँ या इस घोर सग्राम को देखूँ, जिसने समस्त देश में हलचल मचा रक्खी है। हज़ारों-लाखों जानों की हिमायत में एक जान न भी रहे, तो क्या चिंता?