सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेम-पंचमी.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३
आभूषण

विमल―अपने को अभागिनी समझती हो?

शीतला―हूँ ही, समझना कैसा? नहीं तो क्या दूसरे को देखकर तरसना पड़ता?

विमल―गहने बनवा दूँँ, तो अपने को भाग्यवती समझने लगोगी?

शीतला―( चिढ़कर ) तुम तो इस तरह पूछ रहे हो, जैसे सुनार दरवाज़े पर बैठा है।

विमल―नहीं, सच कहता हूँ, बनवा दूँँगा। हाँ, कुछ दिन सबर करना पड़ेगा।

( २ )

समर्थ पुरुषों को बात लग जाती है, तो वे प्राण ले लेते हैं। सामर्थ्य-हीन पुरुष अपनी ही जान पर खेल जाता है। विमल- सिह ने घर से निकल जाने की ठानी। निश्चय किया, या तो इसे गहनो से ही लाद दूँँगा या वैधव्य-शोक से; या तो आभू- षण ही पहनेगी या सेंदुर को भी तरसेगी।

दिन-भर वह चिंता में डूबा पड़ा रहा। शीतला को उसने प्रेम से संतुष्ट करना चाहा था। आज अनुभव हुआ कि नारी का हृदय प्रेम-पाश से नहीं बँधता, कंचन के पाश ही से बँध सकता है। पहर रात जाते-जाते वह घर से चल खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा। ज्ञान से जागे हुए विराग में चाहे मोह का संस्कार हो, पर नैराश्य से जागा हुआ विराग अचल होता है। प्रकाश में इधर-उधर की वस्तुओं को देखकर मन