कौतूहल से देखती थीं, और आँखों से कहती थीं―हा निर्दयी पुरुष! इतना भी न हो सका कि डोले पर तो बैठा देता।
इस गाँव से निकलकर मंगला उस गाँव मे पहुँँची, जहाँ शीतला रहती थी। शीतला सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो गई, और मंगला से बोली―बहन, ज़रा आकर दम ले लो।
मंगला ने अंदर जाकर देखा, तो मकान जगह-जगह से गिरा हुआ था। दालान में एक वृद्धा खाट पर पड़ी थी। चारो ओर दरिद्रता के चिह्न दिखाई देते थे।
शीतला ने पूछा―यह क्या हुआ?
मंगला―जो भाग्य में लिखा था।
शीतला―कुँअरजी ने कुछ कहा-सुना क्या?
मंगला―मुँँह से कुछ न कहने पर भी तो मन की बात छिपी नहीं रहती।
शीतला―अरे, तो क्या अब यहाँ तक नौबत आ गई!
दुःख की अंंतिम दशा संकोच-हीन होती है। मंगला ने कहा― चाहती, तो अब भी पड़ी रहती। उसी घर में जीवन कट जाता। पर जहाँ प्रेम नहीं, पूछ नहीं, मान नहीं, वहाँ अब नहीं रह सकती।
शीतला―तुम्हारा मायका कहाँ है?
मंगला―मायके कौन मुँँह लेकर जाऊँगी?
शीतला―तब कहाँ जाओगी?
मंगला―ईश्वर के दरबार में। पूछूँँगी, तुमने मुझे सुंदरता