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आभूषण

लालायित है! बोले―“अच्छा, मैं तुम्हें गहने बनवा दूँगा।”

यह वाक्य कुछ अपमान-सूचक स्वर में कहा गया था; पर शीतला की आँखें आनंद से सजल हो आईं, कंठ गद्गद हो गया। उसके हृदय-नेत्रो के सामने मंगला के रत्न जटित आभूषणों का चित्र खिच गया। उसने कृतज्ञता-पूर्ण दृष्टि से सुरेश को देखा। मुँह से कुछ न बोली; पर उसका प्रत्येक अंग कह रहा था― “मैं तुम्हारी हूँ।”

( ६ )

कोयल आम की डालियों पर बैठकर, मछली शीतल निर्मल जल में क्रीडा करके और मृग-शावक विस्तृत हरियालियों में छलाँँगें भरकर इतने प्रसन्न नहीं होते, जितना मंगला के आभू- षणों को पहनकर शीतला प्रसन्न हो रही है। उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते। वह आकाश में विचरती हुई जान पड़ती है। वह दिन-भर आइने के सामने खड़ी रहती है; कभी केशों को सँवारती है, कभी सुरमा लगाती है। कुहरा फट गया और निर्मल स्वच्छ चाँदनी निकल आई है। वह घर का एक तिनका भी नहीं उठाती। उसके स्वभाव में एक विचित्र गर्व का संचार हो गया है।

लेकिन श्रृंगार क्या है? सोई हुई काम-वासना को जगाने का घोर नाद―उद्दीपन का मंत्र। शीतला जब नख-शिख से सज- कर बैठती है, तो उसे प्रबल इच्छा होती है कि मुझे कोई देखे।