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पृष्ठ:प्रेम-पंचमी.djvu/५७

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आभूषण

ड़ियाँ अनुकूल जल-वायु न पाकर सिमट गई थी। यह पूर्ण विकसित कुसुम था―ओस के जलकणों से जगमगाता और वायु के झोकों से लहराता हुआ। विमल उसकी सुंदरता पर पहले भी मुग्ध था। पर यह ज्योति वह अग्नि-ज्वाला थी, जिससे हृदय में ताप ओर आँखों में जलन होती थी। ये आभूषण, ये वस्त्र, यह सजावट! उसके सिर में चक्कर-सा आ गया। ज़मीन पर बैठ गया। इस सूर्यमुखी के सामने बैठते हुए उसे लज्जा आती थी। शीतला अभी तक स्तंभित खड़ी थी। वह पानी लाने नहीं दौड़ी, उसने पति के चरण नहीं धोए, उसके पंखा तक नहीं झला। वह हतबुद्धि-सी हो गई थी। उसने कल्पनाओं की कैसी सुरम्य वाटिका लगाई थी! उस पर तुषार पड़ गया! वास्तव में इस मलिन-वदन, अद्ध-नग्न पुरुष से उसे घृणा हो रही थी। यह घर का ज़मीदार विमल न था। वह मज़दूर हो गया था। मोटा काम मुखाकृति पर असर डाले बिना नहीं रहता। मजदूर सुदर वस्त्रों में भी मजदूर ही रहता है।

सहसा विमल की माँँ चौकी। शीतला के कमरे में आई, तो विमल को देखते ही मातृ-स्नेह से विह्वल होकर उसे छाती से लगा लिया। विमल ने उसके चरणो पर सिर रक्खा। उसकी आँखो से आँसुओं की गरम-गरम बूँँदे निकल रही थी। माँँ पुलकित हो रही थी। मुख से बात न निकलती थी।

एक क्षण में विमल ने कहा―अम्मा!

कंठ-ध्वनि ने उसका आशय प्रकट कर दिया।