सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेम-पंचमी.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
प्रेम-पंचमी

माँ ने प्रश्न समझकर कहा―नहीं बेटा, यह बात नहीं है।

विमल―यह देखता क्या हूँ?

माँ―स्वभाव ही ऐसा है, तो काई क्या करे?

विमल―सुरेश ने मेरा हुलिया क्यो लिखाया था?

माँ―तुम्हारी खोज लेने के लिये। उन्होने दया न की होती, तो आज घर में किसी को जीता न पाते।

विमल―बहुत अच्छा हाता।

शीतला ने ताने से कहा―अपनी ओर से तो तुमने सबको मार ही डाला था। फूलो की सेज बिछा गए थे न?

विमल―अब तो फूलों की सेज ही बिछी हुई देखता हूँ।

शीतला―तुम किसी के भाग्य के विधाता हो?

विमलसिंह उठकर क्रोध से काँपता हुआ बोला―अम्मा, मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस पिशाचिनी का मुँँह नहीं देखना चाहता। मेरी आँखों में खून उतरता चला आता है। मैंने इस कुल-कलंकिनी के लिये तीन साल तक जो कठिन तपस्या की है, उससे ईश्वर मिल जाता; पर इसे न पा सका!

यह कहकर वह कमरे से निकल आया, और माँ के कमरे में लेट रहा। माँ ने तुरंत उसका मुँँह और हाथ-पर धुलाए। वह चूल्हा जलाकर पूरियाँ पकाने लगी। साथ-साथ घर की विपत्ति- कथा भी कहती जाती थी। विमल के हृदय में सुरेश के प्रति जो विरोधाग्नि प्रज्वलित हो रही थी, वह शांत हो गई; लेकिन हृदय-दाह ने रक्त-दाह का रूप धारण किया। ज़ोर का