शीतला उलटे-पाँव चली गई। सुरेश पर घड़ों पानी पड़ गया। मन मे सोचा―कितना रूप-लावण्य है, पर कितना विषाक्त! हृदय की जगह केवल श्रृंगार-लालसा!
रोग बढ़ता ही गया। सुरेश ने डॉक्टर बुलवाए। पर मृत्युदेव ने किसी की न मानी। उनका हृदय पाषाण है। किसी भाँति नहीं पसीजता। कोई अपना हृदय निकालकर रख दे, आँसुओं की नदी बहा दे; पर उन्हे दया नहीं आती। बसे हुए घर को उजाड़ना, लहराती हुई खेती को सुखाना उनका काम है। और, उनकी निर्दयता कितनी विनोदमय है! वह नित्य नए रूप बदलते रहते हैं। कभी दामिनी बन जाते हैं, तो कभी पुष्प- माला। कभी सिंह बन जाते हैं, तो कभी सियार। कभी अग्नि के रूप में दिखाई देते हैं, तो कभी जल के रूप में।
तीसरे दिन, पिछली रात को, विमल की मानसिक पीड़ा और हृदय-ताप का अंत हो गया। चोर दिन को कभी चोरी नहीं करता। यम के दूत प्रायः रात का ही सबकी नज़रे बचाकर आते है, और प्राण-रत्न को चुरा ले जाते है। आकाश के फूल मुरझाए हुए थे। वृक्ष-समूह स्थिर थे; पर शोक में मग्न, सिर झुकाए हुए। रात शोक का बाह्य रूप है। रात मृत्यु का क्रीड़ा- क्षेत्र है। उसी समय विमल के घर से आर्त-नाद सुनाई दिया― वह नाद, जिसे सुनने के लिये मृत्युदेव निकल रहते हैं।
शीतला चौक पड़ी, और घबराई हुई मरण-शय्या की ओर चली। उसने मृत-देह पर निगाह डाली, और भयभीत होकर