सुरेश―पिशाच!
साली―(हँसकर) तो मैं भागती हूँ। मुझे आपसे डर लगता है।
सुरेश―पिशाचों का प्रायश्चित्त भी तो स्वीकार हो जाता है।
साली―शर्त यह है कि प्रायश्चित्त सच्चा हो।
सुरेश―यह तो वह अंतर्यामी ही जान सकते हैं।
साली―सच्चा होगा, तो उसका फल भी अवश्य मिलेगा। मगर दीदी को लेकर इधर ही से लोटिएगा।
सुरेश की आशा-नौका फिर डगमगाई। गिड़गिड़ाकर बोले― “प्रभो, ईश्वर के लिये मुझ पर दया करो, मैं बहुत दुखी हूँ। साल-भर से ऐसा कोई दिन नहीं गया कि मैं रोकर न सोया हूँ।”
प्रभा ने उठकर कहा―“अपने किए का क्या इलाज? जाती हूँ, आराम कीजिए।”
एक क्षण में शीतला की माता आकर बैठ गई, और बोली― “बेटा, तुमने तो बहुत पढ़ा-लिखा है, देस-विदेस घूम आए हो, सुंदर बनने की कोई दवा कही नहीं देखी?”
सुरेश ने विनय-पूर्वक कहा―“माताजी, अब ईश्वर के लिये और लज्जित न कीजिए।”
माता―तुमने तो मेरी बेटी के प्राण ले लिए! मैं क्या तुम्हे लज्जित करने से भी गई! जी में तो था कि ऐसी-ऐसी सुनाऊँगी कि तुम भी याद करोगे; पर मेरे मेहमान हो, क्या जलाऊँ? आराम करो।