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प्रेम-पंचमी

कोई बड़े-से-बड़ा राजा या राज-कर्मचारी किसी अँगरेज से बराबरी करने का साहस कर सके।

अगर किसी में यह हिम्मत थी, तो वह राजा बख्तावरसिंह थे। उनसे कंपनी का बढ़ता हुआ अधिकार न देखा जाता था; कंपनी को वह सेना जिसे उसने अवध-राज्य की रक्षा के लिये लखनऊ में नियुक्त किया था, दिन-दिन बढ़ती जाती थी। उसी परिमाण में सेना का व्यय भी बढ़ रहा था। राज-दरबार उसे चुका न सकने के कारण कंपनी का ऋणी होता जाता था। बादशाही सेना की दशा हीन से हीनतर होती जाती थी। उसमें न संगठन था, न बल। बरसों तक सिपाहियों का वेतन न मिलता। शस्त्र सभी पुराने ढंग के, वरदी फटी हुई, क़वायद का नाम नहीं। कोई उनका पूछनेवाला न था। अगर राजा बख्तावरसिंह वेतन-वृद्धि या नए शस्त्रों के संबंध में कोई प्रयत्न करते, तो कंपनी का रेज़िडेट उसका घोर विरोध और राज्य पर विद्रोहात्मक शक्ति-संचार का दोषारोप करता। उधर से डाँट पड़ती, तो बादशाह अपना ग़ुस्सा राजा साहब पर उतारते। बादशाह के सभी अँगरेज़ मुसाहब राजा साहब से शंकित रहते, और उनको जड़ खोदने का प्रयास करते थे। पर वह राज्य का सेवक एक ओर से अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए अपने कर्तव्य का पालन करता जाता था। मज़ा यह कि सेना भी उनसे संतुष्ट न थी। सेना में अधिकांश लखनऊ के शोहदे और गुंडे भरे हुए थे। राजा