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राज्य-भक्त

साहब जब उन्हे हटाकर अच्छे-अच्छे जवान भरती करने को चेष्टा करते, तो सारी सेना में हाहाकार मच जाता। लोगों को शंका होती कि यह राजपूतों को सेना बनाकर कही राज्य ही पर तो हाथ नहीं बढ़ाना चाहते? इसलिये मुसलमान भी उनसे बदगुमान रहते थे। राजा साहब के मन में बार-बार प्रेरणा होती कि इस पद को त्यागकर चले जायँ, पर यह भय उन्हें रोकता था कि मेरे हटते ही अँँगरज़ों की बन आवेगी, और बादशाह उनके हाथों में कठपुतली बन जायँगे; रही-सही सेना के साथ अवध-राज्य का अस्तित्व भी मिट जायगा। अत- एव, इतनी कठिनाइयों के होते हुए भी, चारो ओर वैर-विरोध से घिरे होने पर भी, वह अपने पद से हटने का निश्चय न कर सकते थे। सबसे कठिन समस्या यह थी कि रोशनुद्दौला भी राजा साहब से खार खाता था। उसे सदैव शंका रहती थी कि यह मराठों से मैत्री करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं। इसलिये वह भी राजा साहब के प्रत्येक कार्य में बाधा डालता रहता। उसे अब भी आशा थी कि अवध का मुसलमानी राज्य अगर जीवित रह सकता है, तो अँगरेजों के संरक्षण में, अन्यथा वह अवश्य हिदुओ की बढ़ती हुई शक्ति का ग्रास बन जायगा।

वास्तव में बखतावरसिह की दशा अत्यंत करुण थी। वह अपनी चतुराई से जिह्वा की भाँति दाँतों के बीच में पड़े हुए अपना काम किए जाते थे। यो तो वह स्वभाव से अक्खड़ थे, पर अपना काम निकालने के लिये मधुरता और मृदुलता, शील