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प्रेम-पंचमी

गया। वहाँ उन्हे सभी प्रकार के कष्ट दिए जाते थे। यहाँ तक कि भोजन भी यथासमय न मिलता था। उनके परिवार को भी असह्य यातनाएँँ दी जाती थीं। लेकिन राजा साहव को बंदी- गृह में एक प्रकार की शांति का अनुभव होता था। वहाँ प्रति क्षण यह खटका तो न रहता था कि बादशाह मेरी किसी बात से नाराज न हो जायँ; मुसाहब लोग कहीं मेरी शिकायत तो नहीं कर रहे है। शारीरिक कष्टो का सहना उतना कठिन नहीं, जितना कि मानसिक कष्टो का। यहाँ सब तकलीफें थी, पर सिर पर तलवार तो नहीं लटक रही थी। उन्होंने मन में निश्चय किया कि अब चाहे बादशाह मुझे मुक्त भी कर दें, मगर मैं राज-काज से अलग ही रहूँगा। इस राज्य का सूर्य अस्त होनेवाला है; कोई मानवी शक्ति उसे विनाश-निशा में लीन होने से नहीं रोक सकती। ये उसी पतन के लक्षण है; नहीं तो क्या मेरी राज्य- भक्ति का यही पुरस्कार मिलना चाहिए था! मैंने अब तक कितनी कठिनाइयों से राज्य की रक्षा की है, यह भगवान् ही जानते हैं। एक तो बादशाह की निरंकुशता, दूसरी ओर बल- वान् और युक्ति-संपन्न शत्रुओं की कूटनीति―इस शिला और भँवर के बीच में राज्य की नौका को चलाते रहना कितना कष्ट- साध्य था! शायद ही ऐसा कोई दिन गुजरा होगा, जिस दिन मेरा चित्त प्राण-शंका से आंदोलित न हुआ हो। इस सेवा, भक्ति और तल्लीनता का यह पुरस्कार है! मेरे मुख से व्यंग्य- शब्द अवश्य निकले, लेकिन उनके लिये इतना कठोर दंड!