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प्रेम-पंचमी

और उनके दोनो खिदमतगार भी आ पहुँचे। सौदागर ने पंडित को देखते ही भर्त्सना-पूर्ण शब्दों में कहा―मियाँ रोशनुद्दौला, मुझे इस वक्त़ तुम्हारे ऊपर इतना ग़ुस्सा आ रहा है कि तुम्हें कुत्तों से नुचवा दूँँ। नमकहराम कहीं का! दगाबाज़!! तूने मेरी सल्तनत को तबाह कर दिया! सारा शहर तेरे जुल्म का रोना रो रहा है! मुझे आज मालूम हुआ कि तूने क्यों राजा बख्ता- वरसिंह को कैद कराया। मेरी अक्ल पर न-जाने क्यों पत्थर पड़ गए थे कि मैं तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया। इस नमकहरामी की तुझे वह सज़ा दूँँगा कि देखनेवालों को भी इबरत ( शिक्षा ) हो।

रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया―आप मेरे बादशाह हैं, इसलिये आपका अदब करता हूँ, वर्ना इसी वक्त़ इस बदज़बानी का मजा चखा देता। खुद आप तो महल में हसीनों के साथ ऐश किया करते हैं, दूसरो को क्या ग़रज़ पड़ी है कि सल्तनत को फिक्र से दुबले हों। ख़ूब, हम अपना खून जलावें, और आप जशन मनावें। ऐसे अहमक कही और रहते होंगे।

बादशाह―( क्रोध से काँपते हुए ) मि॰....मैं तुम्हे हुक्म देता हूँ कि इस नमकहराम को अभी गोली मार दो। मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता। और, इसी वक्त जाकर इसकी सारी जाय- दाद जब्त कर लो। इसके खानदान का एक बच्चा भी जिंदा न रहने पावे।