रोशन―मि॰..... मै तुम्हे हुक्म देता हूँ कि इस मुल्क और क़ौम के दुश्मन, रैयत-कातिल और बदकार आदमी को फौरन् गिरफ्तार कर लो। यह इस क़ाबिल नहीं कि ताज और तख्त का मालिक बने।
इतना सुनते ही पाँचो अँगरेज़ मुसाहबों न, जो भेष बदले हुए साथ थे, बादशाह के दोनो हाथ पकड़ लिए, और खीचते हुए गोमती की तरफ ले चले। बादशाह की आँखे खुल गई। समझ गए कि पहले ही से यह षड्यंत्र रचा गया था। इधर- उधर देखा, कोई आदमी नहीं। शोर मचाना व्यर्थ था। बाद- शाही का नशा उतर गया। दुरवस्था वह परीक्षाग्नि है, जो मुलम्मे और रोगन को उतारकर मनुष्य का यथार्थ रूप दिखा देती है। ऐसे ही अवसरों पर विदित होता है कि मानव-हृदय पर कृत्रिम भावों का कितना गहरा रंग चढ़ा होता है। एक क्षण में बाद- शाह को उदंडता और घमंड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया। बोले―मैने तो आप लोगों की मरजी के ख़िलाफ ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी यह सजा मिले। मैने आप लोगों को हमेशा अपना दोस्त समझा है।
रोशन―तो हम लोग जो कुछ कर रहे हैं, वह भी आपके फायदे के लिये ही कर रहे हैं। हम आपके सिर से सल्तनत का बोझ उतारकर आपको आजाद कर देंगे। तब आपके ऐश में ख़लल न पड़ेगा। आप बेफिक्र होकर हसीनों के साथ ज़िदगी के मज़े लूटिएगा।