पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०४

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प्रेम पूर्णिमा वह भी कड़ा पड जाती थी। शपथे खाती। सफाई की शहादतें पेश करती। वादविवाद में घण्टों लग जाते थे। प्रायः नित्य यही दशा रहती थी और प्रतिदिन यह नाटक दाईके अश्रुपातके साथ समाप्त होता था। दाईका इतनी सरिनयाँ झेलकर पड़े रहना सुखदाके सन्देहको और भी पुष्ट करता था। उसे कभी विश्वास नही होता था कि यह बुढिया केवल बच्चेके प्रेमवश पड़ी हुई है। वह बुढियाको इतनी बाल प्रेम शीला नही समझती थी। [२] संयोगसे एक दिन दाईको बाजारसे लौटने में जरा देर हो गयी। वहॉ दो कुंजडिनोमें देवासुर संग्राम मचा था। उनका चित्रमय हाव भाव, उनका आग्नेय तर्क-वितर्क, उनके कटाक्ष और व्यङ्ग सब अनुपम थे। विषके दो नद थे या ज्वालाके दो पर्वत, जो दोनों तरफसे उमड़कर आपस में टकरा गये थे। क्या वाक्य प्रवाह या, कैसो विचित्र विवेचना ! उनका शब्द बाहुल्य, उनकी मार्मिक विचारशीलता, उनके अलकृत शब्द विन्यास और उनकी उपमाओंकी नवीनतापर ऐसा कौन सा कवि है जो मुग्ध न हो जाता। उनका धैर्य, उनकी शान्ति विस्मयजनक थी। दर्शकोंकी एक खासी भीड थी। वह लाजको भी लजित करनेवाले इशारे, वह अश्लील शब्द जिनसे मलिनताके भी कान खड़े होते, सहनों रसिकजनों के लिय मनोरंजनकी सामग्री बने हुए थे। दाई भी खड़ी हो गयी कि देखू क्या मामला है। तमाशा इतना मनोरञ्जक था कि उसे समयका बिलकुल ध्यान न रहा 1-