पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/२०३

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महातीर्थ- मुन्शी इन्द्रमणिकी आमदनी कम थी और खर्च ज्यादा। अपने बच्चेके लिए दाई रखनेका खर्च न उठा सकते थे। लेकिन एक तो बच्चेकी सेवा शुश्रूषाकी फिक्र और दूसरे अपने बराबर- वालोंसे हेठे बनकर रहनेका अपमान; इस खर्चको सहनेपर मजबूर करता था । बच्चा दाईको बहुत चाहता था, हरदम उसके गलेका हार बना रहता था। इसलिए दाई और भी जरूरी मालूम होती थी, पर शायद सबसे बड़ा कारण यह था कि वह मुरौवतके वश दाईको जवाब देनेका साहस नहीं कर सकते थे। बुढिया उनके यहाँ तीन सालसे नौकर थी। उसने उनके एकलौते लड़के- का लालन पालन किया था। अपना काम बडी मुस्तैदी और परिश्रमसे करती थी। उसे निकालनेका कोई बहाना नही था और व्यर्थ खुचड़ निकालना इन्द्रमणि जैसे भले आदमी के स्वभावके विरुद्ध था, पर सुखदा इस सम्बन्धमे अपने पतिसे सहमत न थी। उसे सन्देह था कि दाई हमें लूटे लेती है । जब दाई बाजारसे लौटती तो वह दालानमें छिपी रहती कि देवू आग कही छिपाकर तो नही रख देतो, लकड़ी तो नही छिपा देती । उसको लाई हुई चीजोंको घटों देखती, पुछताछ करती। बार बार पूछती, इतना ही क्यों ? क्या भाव है? क्या इतना मँहगा हो गया ? दाई कमी तो इन सन्देहात्मक प्रश्नोंका उत्तर नम्रतापूर्वक देती किन्तु जब कभी बहूजी ज्यादा तेज हो जाती तो