पृष्ठ:प्रेम पूर्णिमा.pdf/७०

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प्रेम-पूर्णिमा कहते थे कि रूठनेवालेको भूख आप ही मना लिया करती है। मूंगाने यह रात भी बिना दाना पानीके काट दो ! लालाजी और लाइनने आज फिर जाग-जागकर मोर किया । आज मूंगाकी गरज और हॅसी बहुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालोंने समझा बला टली। सवेरा होते ही जो दरवाजा खोलकर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी, मुंहपर मक्खियाँ मिन मिना रही है और उसके प्रान-पखेरू उड़ चुके हैं। वह इस दरवाजेपर मरने ही आयी थी। जिसने उसके जीवनकी जमा पूजी हर ली थी उसीको अपनी जान भी सौंप दी। अपने शरीरकी मिट्टीतक उसकी भेंट कर दी। धनसे मनुष्यको कितना प्रेम होता है। ध्रन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा होता है । विशेषकर बुढ़ापेमें। ऋण चुकानेके दिन ज्यों-ज्यों पास आते जाते हैं, त्यो त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है। यह कहना यहाँ व्यर्थ है कि गाँवमें इस घटनासे कैसी हल- चल मचौ और मुन्शी रामसेवक कैसे अपमानित हुए । एक छोटेसे गॉवमे ऐसी असाधारण घटना होनेपर जितनी हलचल हो सकती उसके अधिक ही हुई। मुन्शीजीका अपमान जितना होना चाहिये था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ। उनका बचा खुचा पानी भी इस घटनासे चला गया। अब गॉवका चमार भो उनके हाथका पानी पीनेका, उन्हें छ्नेका रवादार न था । यदि . किसी घरमें कोई गाय खू टेपर मर जाती है वो वह आदमीमहीनों द्वार-द्वार भीख मांगता फिरता है । न नाई उसकी हजामत बनावे, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छूए । यह गोहत्याका प्रायश्चित्त था । ब्रह्महत्याका दण्ड तो इससे भी कड़ा है और