पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
बाहुबल और वाक्यबल।
 

लोग समाजपर शासन करते हैं, वे ही इस सम्प्रदायके अत्याचारी हैं । प्राचीन भारतवर्षके ब्राह्मण राजपुरुष नहीं गिने जाते थे, तथापि वे समाजके प्रधान शासक थे। आयोंके समाजको वे लोग जिधर घुमाते फिराते थे, उधर ही वह घूमता फिरता था। समाजको वे जो जंजीर पहनाते थे, समाज अलंकार समझकर उसे पहन लेता था। मध्यकालीन यूरोपके धर्मयाजक भी इसी तरहके थे—राजपुरुप न होकर भी वे युरोपियन समाजके शासक और घोर अत्याचारी थे। पोपगण यूरोपके राजा नहीं थे—थोड़ीसी भूमिके राजा थे, किन्तु वे सारे यूरोपपर घोर अत्याचार कर गये हैं । ग्रेगरी या इनोसेण्ट, लिओ या आड्रियन यूरोपमें जितना अत्याचार कर गये हैं, उतना दूसरे फिलिप, चौदहवें लुई, आठवें हेनरी और प्रथम चार्ल्स भी नहीं कर सके।

केवल राजपुरुषों और धर्मयाजकोंको ही दोप नहीं दिया जा सकता। इस समय इंग्लैंडमें राजा या रानी किसी प्रकारका अत्याचार करनेकी क्षमता नहीं रखते—शासनशक्ति उनके हाथमें नहीं है। इस समय इंग्लैंडमें यथार्थ शासनशक्ति एडीटरोंके हाथमें है । अतएव इंग्लैंडके एडीटर लोग अत्याचारी हैं। जहाँ सामाजिक शक्ति है वहीं सामाजिक अत्याचार है।

किन्तु यह बात नहीं है कि केवल शासक और समाजके व्यवस्थापक लोग ही अत्याचारी हों। अन्य प्रकारके सामाजिक अत्याचारी भी हैं। जिन विषयोंमें न राजशासन है और न धर्मशासन है—किसी प्रकारके शासन- कर्तीका शासन नहीं है—उन विषयोंमें समाज किनके मतपर चलता है ? अधिकांश लोगोंके मतपर । जहाँ समाजका मत एक है, वहाँ कुछ भी गड़बड़ नहीं है—कोई अत्याचार नहीं है। किन्तु इस प्रकारका एक मत होना बहुत दुर्लभ है। मतभेद होनेपर अधिकांशके मतके अनुसार ही थोड़े लोगोंको चलना पड़ता है। थोड़ा अंश अगर भिन्नमतावलम्बी होता है तो भी, और अगर वह अधिकांशके मतके अनुसार काम करनेको घोरतर दुःख समझता है तो भी, उसे अधिकांशके मतके अनुसार ही चलना पड़ता है। नहीं तो समाजका अधिक अंश थोड़े अंशको अपनेसे अलग कर देगा, या अन्य कोई सामाजिक दण्ड देकर पीड़ा पहुँचावेगा। यह घोरतर सामाजिक अत्याचार है। यह अल्पांशके ऊपर अधिकांशका अत्याचार कहलाता है।

१०१