पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/११८

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बाहुबल और वाक्यबल ।
 

हम इस प्रबन्ध गौण कारणको छोड़ भी दे सकते हैं। हम इस बातकी आलोचना कर रहे हैं कि सामाजिक अत्याचार किस किस बलसे निवृत्त होते हैं। समाजनिबद्ध हुए बिना सामाजिक अत्याचारका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। समाजबन्धन सब सामाजिक अवस्थाओंका नित्य कारण है। जो नित्य कारण है वह विकृतिके कारणके अनुसन्धानमें छोड़ दिया जा सकता है।

ऐसा समझा जा चुका है कि ऐसा करनेसे हमारे शासनके लिए बाहु- बलका प्रयोग होगा—यह विश्वास ही बाहुबलके प्रयोगके निवारणका मूल कारण है। किन्तु मनुप्यकी दूरदर्शिता सब समय समान नहीं रहती। वह सब समय बाहुबलके प्रयोगकी आशंका नहीं करती। अक्सर देखा जाता है कि समाजमें जिनकी दृष्टि तीक्ष्ण है, वे ही उसे समझ पाते हैं कि इस अवस्थामें बाहुबलके प्रयोगकी संभावना है। वे औरोंको वह अवस्था समझा देते हैं। लोग समझ जाते हैं। समझते हैं कि यदि हम इस समय कर्त्तव्य- साधन न करेंगे, तो हमारे ऊपर बाहुबलके प्रयोगकी संभावना है। उसके अशुभ फलकी आशंका करके विपरीत मार्गपर चलनेवाले लोग ठीक राह- पर चलने लगते हैं।

अतएव जब समाजका एक भाग दूसरे भागको पीड़ित करता है, तब उसके प्रतिकारके दो उपाय हैं। उनमेंसे एक बाहुबलका प्रयोग है । जब राजा प्रजाको उत्पीड़ित करके सहजमें निरस्त नहीं होता तब प्रजा बाहुबलका प्रयोग करती है । यदि कभी कोई राजाको यह समझा सकता है कि इस प्रकारका उत्पीड़न करनेसे प्रजाके द्वारा बाहबलके प्रयोगकी आशंका है, तो राजा अत्याचारसे निरस्त हो जाता है।

इंग्लैंडके प्रथम चार्ल्स प्रजाके बाहुबलसे शासित हुए थे, यह सबको मालूम है । चार्ल्सके पुत्र द्वितीय जेम्स बाहुबलके प्रयोगका उद्यम देखकर देशत्यागी हो गये थे। किन्तु साधारणतः इस प्रकारके बाहुबलके प्रयोगका प्रयोजन नहीं होता। बाहुबलकी आशंका ही यथेष्ट है । असीम प्रतापशाली अगर समझें कि किसी काममें प्रजा असन्तुष्ट होगी, तो वे उस कार्यमें कभी हाथ न डालें। सन् १८५७—५८ में देखा गया है कि यद्यपि भारतकी प्रजा

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