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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२०

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बाहुबल और वाक्यबल ।
 

ऐसे सत्पथमें सर्वसाधारणकी प्रवृत्ति नहीं होती। साधारण मनुष्य अज्ञ होते हैं, चिन्ताशील व्यक्ति उन्हें शिक्षा देते हैं। वे शिक्षा देनेवाले उपदेश जब यथाविहित बलशाली होते हैं, तभी समाजके हृदयमें स्थान पाते हैं। जो बिल्कुल समाजके हृदयमें बस जाता है, उसे समाज फिर छोड़ नहीं सकता— उसके अनुष्ठानमें प्रवृत्त होता है। उपदेशके वाक्यबलसे आन्दोलित समाजमें विप्लव उपस्थित हो सकता है। वाक्यबलसे जैसा सामाजिक इष्ट सिद्ध होता है, वैसा होनेकी बाहुबलसे कभी संभावना नहीं।

मूसा, ईसा, शाक्यसिंह आदि बाहुबलसे बली नहीं थे, उनके पास केवल वाक्यबल था । किन्तु ईसा, शाक्यसिंह आदिके द्वारा पृथ्वीका जितना भला हुआ है, उसका शतांश भी बाहुबलके द्वारा नहीं हुआ। यह बात नहीं है कि बाहुबलके द्वारा कभी समाजका इष्ट नहीं होता। आत्मरक्षाके लिए बाहुबल ही श्रेष्ठ है। अमेरिकाके प्रधान उन्नतिकर्ता बाहुबल-वीर वाशिंगटन थे। हालैंड और बेल्जियमके प्रधान उन्नतिकर्ता बाहुबल-वीर विलियम थे। भारतवर्षकी आधु- निक दुर्गतिका कारण बाहुबलका अभाव ही है। किन्तु साधारणतः देखनेसे यह देख पड़ेगा कि बाहुबलकी अपेक्षा वाक्यबलसे ही जगतका कल्याण होता है। बाहुबल पशुका बल है। वाक्यबल मनुष्यका बल है। किन्तु केवल कुछ बक- बक कर लेना ही वाक्यबल नहीं है। कोरे वाक्यके बलको मैं वाक्यबल नहीं कहता। वाक्यसे जो व्यक्त होता है, उसीको मैं वाक्यबल कहता हूँ। चिन्ता- शील मनुष्य चिन्ताके द्वारा जगतके तत्त्वोंको अपने मनसे आविष्कृत करते हैं। वक्ता लोग वाक्यके द्वारा उन तत्त्वोंको लोगोंके हृदयमें जमाते हैं। इन दोनों बातोंके बलकी समष्टिको वाक्यबल कहते हैं।

ये दोनों बल प्रायः एक ही पुरुषमें पाये जाते हैं। कभी कभी दोनों बल भिन्न भिन्न पुरुषों में अलग अलग होते हैं। एकत्र हों, या अलग अलग हों, दोनोंका समवाय ही वाक्यबल है । [असमाप्त।]

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