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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२५

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बंकिम-निबन्धावली—
 

ज्ञानके अत्याचारपर शासन करनेके लिए मनुष्य किसी शक्तिका व्यवहार न कर सकेगा। कमसे कम इस समय तो यही समझमें आता है।

उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि प्रणयके ही द्वारा प्रणयका अत्या- चार शान्त किया जा सकता है। हम स्वीकार करते हैं कि यह बात यथार्थ है। स्नेह यदि स्वार्थपरतासे शून्य हो, तो यह हो सकता है। किन्तु साधारण मनुष्योंकी प्रकृति ऐसी है कि स्वार्थपरताशून्य प्यार इस संसारमें दुर्लभ है। इस बातके असली मतलबको न लेकर अनेक लोग मन-ही-मन इसका प्रतिवाद कर सकते हैं। वे कह सकते हैं कि जिस माताने स्नेहवश पुत्रको धन कमानेके लिए परदेश नहीं जाने दिया, वह क्या स्वार्थपर है ? बल्कि यदि वह स्वार्थपर होती तो पुत्रको धनकी खोजमें दूरदेश जानेके लिए मना न करती। क्योंकि कौन माता पुत्रकी कमाईका सख नहीं भोगना चाहती ? अतएव इस प्रकारके दर्शन मात्रकी आकांक्षा रखनेवाले स्नेहको बहुत लोग अस्वार्थपर स्नेह समझते हैं। किन्तु वास्तवमें यह खयाल ठीक नहीं है। यह स्नेह अस्वार्थपर नहीं है। जो लोग इसे अस्वा-र्थपर मानते हैं, वे केवल धनपरायणताको ही स्वार्थपरता समझते हैं। जो धनकी कामना नहीं करता, उसे वे स्वार्थपरतासे शून्य समझते हैं। वे यह नहीं समझ सकते कि धनलाभके अलावा पृथ्वीपर अन्यान्य सुख हैं और उनसे किसी किसी सुखकी आकांक्षा धनकी आकांक्षासे अधिकतर वेग-वाली है। जिस माताने धनका मोह त्यागकर पुत्र-मुख देखनेके सुखकी वासनासे पुत्रको सदाके लिए गरीब बना डाला, अथवा अपनी अवस्था सभालनेका अवसर उसके हाथसे निकल जाने दिया, उसने भी अपना सुख खोया। वह धनका सुख नहीं चाहती, किन्तु पुत्रको सदा देख- नेका सुख चाहती है । वह सुख माताका है, पुत्रका नहीं है। माताको देखनेसे अगर पुत्रको सुख हो तो हो, वह जुदी बात है। उसमें पुत्रकी प्रवृत्ति होनी चाहिए। माताने यहाँपर अपना एक सुख ढूँढ़ा—नित्य पुत्रका मुख देखना । उसकी अभिलाषा करके उसने पुत्रको दारिद्यके दुःखसे दुःखित बनाना चाहा। यहाँ माता स्वार्थपर है। क्यों कि उसने अपने सुखके लिए अन्यको दुखी किया।

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