पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२७

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बंकिम-निबन्धावली—
 

निर्मलताकी रक्षा ही उसका उद्देश्य है। दूसरा सूत्र पर-सम्बन्धीय होनेके कारण यथार्थ धर्मनीतिका मूल कहा जा सकता है। १-दूसरेका अनिष्ट न करना, २-यथाशक्ति दूसरेकी भलाई करना, यह महती उक्ति जगत् भरके धर्मशास्त्रोंका एकमात्र मूल और एकमात्र फल है। अन्य कोई भी नीतिसे सम्बन्ध रखनेवाली उक्ति कहिए, उसका आदि और अन्त इसीमें लीन हो जायगा। आत्मसंस्कार-नीतिके सब तत्त्वोंके साथ इस महानीति-तत्वका ऐक्य है। और, परहित-नीति और आत्मसंस्कार-नीति एक ही तत्त्वकी भिन्न भिन्न व्याख्या मात्र हैं। परोपकारमें प्रवृत्ति और पराये अहितसे निवृत्ति, यही समग्र नीतिशास्त्रके उपदेशोंका सारांश है।

अतएव इसी धर्मनीतिके मूलसूत्रका अवलंबन करनेसे ही प्यारका अत्या- चार निवृत्त हो सकता है। जब स्नेह करनेवाला आदमी स्नेहपात्रके किसी काममें हस्तक्षेप करनेको उद्यत होता है, तब उसे अपने मनमें यह दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए कि मैं केवल अपने सुखके लिए उसमें हस्तक्षेप नहीं करूँगा । अपना समझकर जिसपर स्नेह रखता हूँ उसका किसी प्रका- रका अनिष्ट नहीं करूँगा। जितना कष्ट सहना पड़े, मैं सहूँगा, तथापि स्नेह- पात्रको किसी अनिष्टकार्यमें प्रवृत्त न करूँगा।

यह बात सुनने में बहुत छोटी और साधारण है और पुरानी जनश्रुतिकी पुनरुक्ति जान पड़ सकती है, किन्तु समयपर इसके अनुसार चलना उतना सहज नहीं है । उदाहरणके तौरपर दशरथकृत रामनिर्वासनकी बातको ही ले लीजिए। इसीके द्वारा इस सामान्य नियमके प्रयोगकी कठिनता बहुतोंकी समझमें आ जायगी। यहाँ कैकेयी और दशरथ दोनों ही प्यारके अत्याचारमें प्रवृत्त हैं । कैकेयी दशरथके ऊपर और दशरथ रामके ऊपर वह प्यारका अत्याचार कर रहे हैं। इनमेंसे कैकेयीका कार्य स्वार्थपर और नीच कहकर चिर-परिचित है। कैकेयीका कार्य स्वार्थपर और नीच अवश्य है, किन्तु उसके प्रति इतनी कटूक्तियोंका प्रयोग शायद विहित नहीं कहा जासकता। कैकेयीने अपने किसी इष्टकी कामना नहीं की—अपने पुत्रकी भलाई सोची थी। यह सत्य है कि पुत्रके मंगलसे ही माताका मंगल है; किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जो एतद्देशीय पिता-माता अपनी जातिके

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