खौफसे पुत्रको पढ़नेके लिए विलायत नहीं जाने देते, उनके कार्यकी अपेक्षा कैकेयीका यह कार्य सौगुना अस्वार्थपर है।
इस बातको जाने दो। कैकेयीके दोष-गुणोंका विचार करनेके लिए इस समय हम प्रस्तुत नहीं है। दशरथने सत्यपालनके लिए रामको वन भेजकर भरतको राज्य दिया। इसमें उन्हें प्राणाधिक पुत्रका वियोग स्वीकार करना पड़ा और अपने प्राणोंसे हाथ धोना पड़ा। इसीसे भारतवर्षके साहित्यका इतिहास उनके यशके कीर्तनसे परिपूर्ण है। किन्तु उत्कृष्ट धर्मनीतिके विचा- रसे यही सिद्ध होता है कि दशरथने पुत्रको अपने अधिकारसे च्युत और निर्वासित करके सत्यका पालन किया, तो इससे उन्हें घोर अधर्म ही हुआ।
हम पूछते हैं कि क्या सत्य ( अर्थात् प्रतिज्ञा ) मात्रका पालन करना चाहिए ? यदि सती कुलकामिनी किसी फेरमें पड़कर किसी कुचरित्र पुरू पके निकट धर्मत्यागका वादा कर ले, तो क्या उस वादेको पूरा करना चाहिए ? यदि कोई किसी ठगके बहकानेसे बिना किसी दोपके मित्रको मारनेकी प्रतिज्ञा कर ले, तो क्या उसे उसका पालन करना चाहिए ? जो कोई घोर महापाप करनेकी प्रतिज्ञा कर ले, तो क्या वह प्रतिज्ञा पालनीय हो सकती है ?
जहाँ प्रतिज्ञाके तोड़नेकी अपेक्षा उसकी रक्षा करनेमें अधिक अनिष्ट है, वहाँ क्या उचित है ? प्रतिज्ञाको तोड़ना या प्रतिज्ञाकी रक्षा ? बहुत लोग कहेंगे कि वहाँ भी सत्यका पालन करना चाहिए। क्यों कि सत्य नित्य-धर्म है, अवस्था-भेदसे वह पुण्यसे पाप नहीं हो सकता। अगर आप पुण्य और पापका निर्णय इस विचारसे करते हैं कि जब जो काम करनेवालेकी समझमें इष्टकारक हो तब वह कर्त्तव्य है, और जब अनिष्टकारक हो तब अकर्तव्य है, तो फिर पुण्य-पापमें कोई भेद नहीं रहता। तब लोग पुण्य कहकर घोर महापातकमें प्रवृत्त हो सकते हैं। हम यहाँपर इस तत्वकी मीमांसा नहीं करेंगे। क्यों कि हितवाददर्शनके अनुयायी लोगोंने एकप्रकारसे इसकी मीमांसा कर रक्खी है।
जब इस प्रकार मीमांसामें गड़बड़ हो, तब धर्मनीतिका जो मूलसूत्र पहले बताया जा चुका है उसके द्वारा परीक्षा की जानी चाहिए।
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