पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१४२

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प्राचीना और नवीना।
 

समान-भागके समूहको समाज कहते हैं। दोनोंकी समान उन्नतिसे समाजकी उन्नति है । यह कहना नीतिके विरुद्ध है कि एक भागकी उन्नति समाज- संस्कारका मुख्य उद्देश्य है, और उस भागकी उन्नतिमें सहायक होनेहीके कारण अन्य भागकी उन्नति गौण उद्देश्य है।

किन्तु समाजके नियामक लोग सर्वदा सभी देशोंमें इस भ्रममें पड़े हुए देख पड़ते हैं। वे लोग यह विधान किया करते हैं कि स्त्रियाँ इस इस तरहका आचरण करें। क्यों करें ? इसका उत्तर यह दिया जाता है कि वैसा करनेसे पुरुष-जातिकी अमुक भलाई होगी या अमुक बुराई निवृत्त होगी। समाज-सं- चालकोंकी सर्वत्र यही उक्ति सुन पड़ती है, समाज-संचालकोंका यही उद्देश्य सर्वत्र विद्यमान है । अन्तर इतना ही है कि कहीं उद्देश्य स्पष्ट है और कहीं अस्पष्ट । इसी कारण स्त्रीके सतीत्वके लिए इतना दबाव डाला गया है । किन्तु पुरुषमें उसी धर्म—एकपत्नीव्रत—का अभाव होनेसे वह उतना बड़ा दोष नहीं गिना जाता । वास्तवमें अगर नीतिशास्त्रके मूलपर ध्यान दिया जाय तो ऐसा कोई विषय ही नहीं पाया जाता, जिसके द्वारा स्त्री-कृत व्यभिचार पुरुष- कृत परस्त्रीगमनकी अपेक्षा गुरुतर दोप समझा जा सके। पाप दोनों ही समान हैं। एक पुरुपकी पत्नी स्त्रीपर उस पुरुषका जैसा स्वाभाविक अधिकार है, ठीक वैसा ही स्वाभाविक अधिकार एक स्त्रीके स्वामी मर्दपर उस औरतका है तथापि पुरुष अगर इस नियमका लंघन करता है, तो वह उसकी शौकीनी समझी जाती है और स्त्री अगर वही दोष करती है तो उसके लिए संसारके सब सुख नष्ट हो जाते हैं—वह अधमसे भी अधम और कोढ़ीसे भी बढ़कर अस्पृश्य समझी जाती है। क्यों ? पुरुषके सुखके लिए स्त्रीका सतीत्व आवश्यक है। वैसे ही स्त्रीजातिके सुखके लिए भी पुरुषके इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता है। किन्तु पुरुष ही समाज हैं, स्त्रियाँ कुछ नहीं हैं। अतएव स्त्रीका पतिव्रतसे च्युत होना समाजमें गुरुतर पाप समझा गया और पुरुषोंके लिए नैतिक बन्धन शिथिल रहा।

सभी समाजोंमें स्त्रीजाति पुरुषोंकी अपेक्षा कम उन्नत है। पुरुषोंका अपने प्रति पक्षपात ही इसका कारण है। पुरुष बलशाली हैं। इस कारण समाजका सब काम पुरुषोंके हाथमें है। इसी कारण स्त्रियोंको पुरुषोंके

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बं. नि.—९