समय अनेक सुखोंसे वञ्चित होना पड़ेगा। इस लिए स्त्रियाँ (और पुरुष भी) इस समय उतना दान नहीं करतीं।
हिन्दुओंका एक प्रधान धर्म अतिथि-सत्कार है। जो घरमें आवे उसे आहार आदिके द्वारा प्रसन्न करने में इस देशके लोगोंकी बराबरी करनेवाली कोई जाति न थी। तबकी स्त्रियोंमें यह गुण विशेष रूपसे वर्तमान था। अबकी स्त्रियोंसे यह धर्म एकदम उठ गया है। घरमें अतिथि अभ्यागतके आने पर तबकी स्त्रियाँ अपनेको कृतार्थ समझती थीं, किन्तु अबकी स्त्रियाँ खीझ उठती हैं। किसीको खिलानेमें तबकी स्त्रियोंको सबसे बढ़कर सुख मिलता था, किन्तु अबकी स्त्रियाँ इस कामको घोर विपत्ति समझती हैं।
धर्म-भावमें अबकी स्त्रियाँ जो तबकी स्त्रियोंसे निकृष्ट हैं, इसका एक विशेष कारण असम्पूर्ण शिक्षा है। लिखने-पढ़ने या अन्य प्रकारसे जो कुछ शिक्षा उन्हें प्राप्त होती है, उसीसे वे यह समझ बैठती हैं कि प्राचीन धर्मका शासन अमूलक है। इसीसे उसके प्रति विश्वास खोकर धर्मके बन्धनसे खिसक पड़ती हैं। उस बन्धनकी जगह और किसी नवीन बन्धनकी गाँठ नहीं लगती। हम लिखने पढ़नेकी निन्दा नहीं करते। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि धर्मके सिवा विद्यासे बढ़कर कीमती चीज संसारमें और कोई नहीं है। किन्तु सर्वत्र विद्याका फल यही देखा जाता है कि उससे आँखें खुलती हैं। विद्या पढ़कर आदमी मिथ्याको मिथ्या और सत्यको सत्य समझता है। विद्याके फलसे मनुष्य प्राचीन धर्मशास्त्रोंके कहे हुए धर्मके मूलमें अलीकता देख पाता है, परन्तु प्राकृतिक सत्य धर्मको सत्य समझ सकता है। अतएव विद्यासे धर्मकी हानि नहीं, बल्कि वृद्धि ही होती है। साधा- रणतः यही देखा जाता है कि पण्डित जैसे धर्मिष्ठ होते हैं, मूर्ख वैसे ही पापिष्ठ होते हैं। किन्तु थोड़ी विद्यामें यह दोष है कि धर्मकी मिथ्या जड़ तो उससे कट जाती है, परन्तु सत्य-धर्मकी स्वाभाविक जड़ नहीं स्थापित होती। सत्य-धर्मकी जड़ स्थापित होनेके लिए कुछ अधिक ज्ञानकी आव- श्यकता होती है।
परोपकार करना चाहिए, यह यथार्थ धर्मनीति है। मूर्ख भी इसे जानता है, और मूर्ख-मण्डलीमें जिनमें धर्मभाव है वे भी इसके अनुगामी होते हैं। इसका कारण यह है कि यह नैतिक आज्ञा प्रचलित धर्मशास्त्रोंमें लिखी
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