प्रजापालक है। अपने आत्माको पीड़ा पहुँचाना धर्म नहीं है। अपनी उति करना, अपने आनन्दको बढ़ाना ही धर्म है। ईश्वरकी भक्ति, मनुप्यके प्रति प्रीति और हृदयमें शान्ति ही धर्म है। भक्ति, प्रीति और शान्ति—इन तीन शब्दोंसे जो मोहिनी मूर्ति बनती है जगतमें उससे बढ़कर मनोहर और क्या हो सकता है ? उसे छोड़कर और किस विषयकी आलोचना करनेको जी चाहेगा?
जो लोग नाटक-उपन्यास पढ़ना बहुत पसन्द करते हैं, उन्हें एक बार अपने मनमें विचार करके देखना चाहिए कि वे किस आकांक्षासे नाटक-उपन्यास पढ़ते हैं। यदि वे नाटक-उपन्यासोंकी विचित्र विस्मयजनक घटनाओंसे मनोविनोद करनेके लिए उन्हें पढ़ते हैं, तो मैं उनसे पूछता हूँ कि विश्वेश्वरकी इस विश्वसृष्टिकी अपेक्षा अधिक विस्मयजनक घटना किस भाषाके साहित्यमें वर्णन की गई है ? एक तृण या एक मक्खीके परमें जितना विचित्र कौशल है उतना कौशल किस उपन्यास-लेखककी रचनामें पाया जाता है ? और इस श्रेणीके पाठकोंकी अपेक्षा और ऊँचे दर्जेके जो पाठक हैं—जो कविकी कल्पना-सृष्टिके लोभसे साहित्यके प्रति अनुरक्त हैं, उनसे मैं पूछता हूँ कि ईश्वरकी सृष्टिकी अपेक्षा किस कविकी सृष्टि सुन्दर है ? वास्तवमें यदि देखा जाय तो उस ईश्वरकी सृष्टिका अनुकरण होनेके कारण ही कविकी सृष्टि सुन्दर जान पड़ती है। नकल कभी असलकी बराबरी नहीं कर सकती। धर्मकी मोहिनी मूर्तिके आगे साहित्यका प्रभावहीन पड़ जाता है।
पाठक कहेंगे कि “ यह बात सत्य नहीं हो सकती। क्योंकि हमें उपन्यास-नाटक पढ़नेकी इच्छा होती है और पढ़कर हम आनन्द भी पाते हैं। धार्मिक प्रबन्ध पढ़नेकी इच्छा नहीं होती और आनन्द भी नहीं मिलता।" इसका उत्तर बहुत ही सहज है। तुमको साहित्य पढ़नेका अनुराग है और तुमको उसमें आनन्द भी मिलता है, सो इसका कारण यह है कि जिन वृत्तियोंका अनुशीलन करनेसे साहित्यका मर्म ग्रहण किया जाता है, तुम सदास उन वृत्तियोंका अनुशीलन करते आते हो, इसी कारण उससे तुसको आनन्द मिलता है। जिन वृत्तियोंके अनुशीलनसे धर्मका मर्म ग्रहण
४