पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१८२

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सांख्यदर्शन।
 

यह पुरुषार्थ किस प्रकार सिद्ध होता है, इसकी पर्यालोचना करना ही सांख्यदर्शनका उद्देश्य है। ज्यों ही किसीपर कोई दुःख पड़ता है, त्यों ही वह उसके दूर करनेका उपाय करता है। भूखसे कष्ट हो रहा है, आहार कर लो। पुत्रशोक हो रहा है, उसे भुलाकर दूसरी ओर चित्तको लगा दो। परन्तु सांख्यकार कहते हैं कि इन सब उपायोंसे दुःखनिवृत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इनके साथ उन्हीं सब दुःखोंकी अनुवृत्ति है—वे दुःख फिर भी होंगे। तुमने भोजन कर लिया, उससे तुम्हारी आजकी भूख मिट गई; परन्तु कल फिर भूख लगेगी। दूसरी ओर चित्त लगाकर तुमने अबकी बार पुत्रशोकको भुला दिया; परन्तु संभव है कि आगे दूसरे पुत्रके लिए भी तुम्हें उसी प्रकारका शोक करना पड़े और इस प्रकारके उपाय सर्वत्र संभव भी नहीं हैं।

गरज यह कि इन सब दुःखोंके निवारणका उपाय नहीं है । आधुनिक विज्ञानी कोम्टके शिष्य पूजेंगे, तो फिर दुःखनिवारणका और क्या उपाय है ? हम जानते हैं कि जल सींचनेसे अग्निका निर्वाण हो जाता है; किन्तु यदि तुम यह कहकर जलको अग्निनाशक न मानो कि शीतल ईंधन फिर भी जल सकता है, तो फिर बात ही समाप्त हो गई। ऐसी दशामें देहध्वंसके सिवाय जीवोंके दुःखोंकी निवृत्ति हो ही नहीं सकती।

सांख्यकार यह भी नहीं मानते। वे जन्मान्तर मानते हैं और यह सोच कर कि लोकान्तरमें बार बार जन्म होता है और यह समझ कर कि जरामरणा- दिज दुःख समान हैं, उसे भी ( देहध्वंसको ) दुःखनिवारणका उपाय नहीं मानते। (अ० ३, सू० ५२-५३) विश्वकारणमें विलीन हो जाने पर भी उस अवस्थाको दुःखनिवृत्ति नहीं कहते, क्यों कि जो जलमें डूब गया है उसका फिर उत्थान होता है । (सू० ५४)

तो फिर दुःखनिवारण किसे कहते हैं ? अपवर्ग ही दुःखकी निवृत्ति है। अपवर्ग क्या है, यह आगे बतलाया जायगा।

विवेक ।

मैं दुःख भोगता हूँ परन्तु यह 'मैं' कौन है ? बाह्य प्रकृतिको छोड़कर और कुछ भी इन्द्रियगोचर नहीं है। तुम कहते हो, मैं बड़ा दुःख पा रहा हूँ, मैं

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