पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१८१

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बंकिम-निबन्धावली—
 

और, यह भी तो नहीं है कि हम सब नियमोंकी रक्षा कर सकने पर भी दुख न पाएँगे। ऐसा भी तो देखा जाता है कि एक मनुष्य नियमोंका लंघन करता है और दूसरा दुख भोगता है। मेरा प्यारा भाई अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिए युद्धक्षेत्र में जाकर मर जाता है और मैं यहाँ उसका वियोगकष्ट भोगता हूँ। हमारे जन्मके पचास वर्ष पहले जो बुरा कानून या राजशासन निर्मित हो चुका है, उसका फल हमें भोगना पड़ रहा है। पितामहको कोई बीमारी थी, इसलिए पौत्र किसी नियमका लंघन न करके भी उस बीमारीसे ग्रसित हो जाता है।

और अनेक विषय ऐसे गुरुतर हैं कि उनमें स्वाभाविक नियमानुवर्ती होनेसे भी दुःख होता है । माल्थस साहबने जनसंख्यावृद्धिके सम्बन्धमें जो सिद्धान्त प्रकट किया है, वह इस बातका प्रमाण है। उसके अनुसार इस समयके प्रायः सभी विचारक विद्वान् स्वीकार करते हैं कि यद्यपि मनुष्य साध- रणतः नैसर्गिक नियमानुसार ही अपने अपने स्वभावका परितोष किया करते हैं, परन्तु इससे जो प्रजावृद्धि होती है, उससे बहुत ही अनिष्ट होता है ।

अतएव यह कहनेके लिए यथेष्ट कारण हैं कि संसार केवल दुःखमय है। सांख्यकार भी यही कहते हैं और यही बात सांख्यदर्शन और बौद्धधर्मकी

किन्तु यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि पृथिवीपर कुछ सुख भी है। सांख्यकार कहते हैं कि सुख अल्प है। कदाचित् ही कोई सुखी देखा जाता है, ( अध्याय ६, सूत्र ७) और सुख दुःखके साथ इस प्रकार मिला रहता है कि विवेचक जन उसे दुःखकी गिनतीमें ही गिन लेते हैं। (अ० ६, सू० ८) दुःखसे तादृश सुखाकांक्षा नहीं उत्पन्न होती ( सू० ६), अतएव दुःखकी ही प्रधानता है।

अतएव मनुष्य-जीवनका प्रधान उद्देश्य दुःखमोचन है। इसी लिए सांख्य- प्रवचनका प्रथम सूत्र है—“अथ त्रिविधः आत्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।"

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* हमारे यहाँसे प्रकाशित 'देशदर्शन' नामक ग्रन्थमें माल्थसके सिद्धान्तको खूब विस्तारके साथ समझाया गया है। मूल्य २), राजसंस्करणका ३ )रु० ।

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