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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१९६

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सांख्यदर्शन।
 

यह अभिप्राय जान पड़ता है कि-" देखो, यदि तुम वेदको सर्वज्ञानयुक्त कहना चाहते हो, तो वेद या तो पौरुषेय होगा या अपौरुषेय। इनमेंसे इस बातका प्रमाण तो वेदमें ही मौजूद है कि वेद अपौरुषेय नहीं है। तब यदि वह पौरु- षेय होगा, तो यह भी कहना होगा कि मनुष्यकृत है। क्योंकि यह बात सिद्ध की जा चुकी है कि सर्वज्ञ पुरुष कोई नहीं है।" यदि इन सब सूत्रोंका इस प्रकार अर्थ किया जाय, तो अद्वितीय दार्शनिक सांख्यकारको अल्पबुद्धि कहना पड़ेगा; परन्तु यह कदापि नहीं कहा जा सकता।

जब वेद पौरुषेय नहीं है और अपौरुषेय भी नहीं है, तब वेद माननी कैसे हो सकता है ? सांख्यकारने इस प्रश्नका उत्तर देना आवश्यक समझा है। यदि आजकलकी बात देखी जाय, तो भारतवर्ष में इससे अधिक गुरुतर प्रश्न और कोई भी नहीं है। एक दल कहता है कि सनातन धर्म वेदमूलक है, तुम वेदको क्यों नहीं मानते ? दूसरा दल कहता है, हम उसे क्यों मानें ? सारा भारत इन्हीं दो दलोंमें विभक्त है। इन दो प्रश्नोंके उत्तरमें विवाद है और इसी प्रश्नके समाधानमें भारतका कल्याण तथा अकल्याण निर्भर है। सारे हिन्दुओंको स्वधर्ममें स्थिर रहना चाहिए या उसे सबको ही छोड़ देना चाहिए? अर्थात् हम वेदको माने या नहीं? और यदि मानें तो क्यों ? एक बार और भी यह प्रश्न उठा था। जिस समय धर्मशास्त्रोंके अत्याचारसे पीड़ित होकर भारतवर्ष त्राहि त्राहि करके पुकार रहा था, उस समय शाक्यसिंह बुद्धदेवने कहा था—" तुम वेदको क्यों मानते हो ? वेदको मत मानो।" यह सुनकर वेद- वित् वेदभक्त दार्शनिक मण्डलीने इस प्रश्नका उत्तर दिया था। जैमिनि, बाद- रायण, गौतम, कणाद, कपिल, जिनकी जैसी धारणा थी, उन्होंने वैसा ही उत्तर दिया था। अतएव प्राचीन दर्शनशास्त्रोंमें उक्त प्रश्नका उत्तर रहनेसे दो बातें जानी जाती हैं। एक तो यह कि आजकलकी अँगरेजी शिक्षाके दोषसे ही लोग वेदोंकी अलंघनीयताके विषयमें सन्देह करने लगे हों, सो बात नहीं है। यह सन्देह बहुत पुराने समयसे चला आ रहा है। प्राचीन दार्शनिकोंके बाद शंकराचार्य, माधवाचार्य, सायनाचार्य आदि नवीन दार्शनिक भी इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए चिन्तित हुए थे। दूसरी यह कि इस प्रश्नको पहले पहल बौद्धोंने उठाया था और प्राचीन दार्शनिकोंने पहले पहल उसका उत्तर दिया था। अतएव बौद्ध धर्म और दर्शनशास्त्रोंकी उत्पत्ति समकालीन समझी जा सकती है।

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