पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/३४

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काम ।
 

" पाँच इन्द्रिय, मन और हृदय अपने विषयमें वर्तमान रहकर जो प्रीति प्राप्त करते हैं उसीका नाम काम है।" ( वनपर्व, ३३ वाँ अध्याय ) यह काम एकदम निन्दाके योग्य नहीं ठहरता । ‘मन और हृदय' यह न कहकर अगर केवल पाँच इन्द्रियोंकी बात कही जाती तो समझा जाता कि इन्द्रियवश्यता ( Sensuality ) रूप कुप्रवृत्तिका नाम काम है। किन्तु 'मन और हृदय'का उल्लेख रहनेसे ऐसा नहीं कहा जा सकता। महा- भारतमें ही दूसरे स्थानपर कहा गया है कि “ माला चन्दन आदि पदार्थोके स्पर्श या सुवर्णादि पदार्थोंके लाभसे मनुष्यको जो प्रसन्नता होती है, उसीका नाम काम है।"

इससे यह देखा जाता है कि एक तो वह किसी प्रकारकी प्रवृत्ति या वृत्ति नहीं है। प्रवृत्ति या वृत्तिकी तृप्तिकी अवस्थामात्र है। दूसरे वह सर्वदा निन्दनीय या निन्दित सुख नहीं है। वह भले-बुरे कर्मोका फलमात्र है। इसी कारण पीछेसे कहा गया है कि वही कर्मका एक उत्कृष्ट फल है। मनुष्य इसी तरह धर्म, अर्थ और कामके ऊपर अलग अलग दृष्टिपात करके केवल धर्मपर या कामपर न हो। निरन्तर समानभावसे उसे इस त्रिव- र्गका अनुशीलन करना चाहिए। शास्त्रमें कहा गया है कि पहले प्रहरमें धर्मानुष्ठान, दूसरे प्रहरमें धनोपार्जन और तीसरे पहरमें कामभोग करना उचित है।

'केवल धर्मपर न होना चाहिए,' ऐसी बात सुननेसे एकाएक यहजान पड़ता है कि उपदेश देनेवाला आदमी या तो घोर अधर्मी है और या धर्मशब्दका किसी विशेष अर्थमें व्यवहार कर रहा है। यहाँ पर ये दोनों बातें कुछ कुछ सच हैं । यहाँपर वक्ता स्वयं भीमसेन है। वे अधर्मी नहीं हैं, किन्तु युधिष्ठिर या अर्जुनकी तरह धर्मके सबसे ऊँचे सोपानपर नहीं पहुँच सके थे और धर्म शब्दका व्यवहार भी यहाँ उन्होंने विशेष अर्थमें किया है। उनकी एक बातसे ही यह समझमें आजाता है। वे इसके बाद ही कहते हैं—" दान, यज्ञ, साधु-पूजा, वेदपाठ और सरलता—ये ही कई एक प्रधान धर्म हैं।"

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