सुविधा हुई है। ‘कृष्' धातु कर्षण या आकर्षण अर्थमें है। जो मनुष्यके चित्तको अपनी ओर खींचे वही कृष्ण है।
मैं—बाबाजी, यह तो कष्ट कल्पना है।
बाबाजी—सो तो है ही। कृष्ण स्वयं रूपक नहीं हैं, इसीसे कष्ट-कल्पना करके यह अर्थ निकालना पड़ता है । वे शरीरधारी थे, अन्यान्य मनुष्योंके साथ कार्यक्षेत्रमें विद्यमान थे । तथापि वे अशरीरी जगदीश्वर हैं। उनको प्रणाम करो।
मैं—किन्तु रूपकका क्या होगा? क्या राधा-कृष्णकी उपासना करनी चाहिए?
बाबाजी—जगदीश्वरके साथ उनके भक्तोंकी उपासना करनी उचित ही है। क्यों कि भक्त तन्मय होते हैं। भक्त भी ईश्वरका अंश हो जाते हैं। जगत् ईश्वरका भक्त है। जगत् ईश्वरमय है। जगतके ईश्वरके साथ जगतकी भी उपासना करनी चाहिए। बोलो–श्रीराधावल्लभाय नमो नमः।
मैं—श्रीराधावल्लभाय नमो नमः।
हिन्दू-धर्मके ग्रन्थोंमें 'काम' शब्दका सदा व्यवहार हुआ करता है। जो कामात्मा या कामार्थी है, उसकी वारम्वार निन्दा की गई है। किन्तु साधारण पाठक इस 'काम' शब्दका अर्थ समझनेमें बड़ी गड़बड़ किया करते हैं। इसी कारण वे सर्वत्र शास्त्रका ठीक ठीक तात्पर्य नहीं समझ सकते। वे साधारणतः किसी विशेष इन्द्रियकी तृप्तिकी इच्छाके अर्थमें इस शब्दका व्यवहार किया करते हैं। वे समझते हैं कि शास्त्रमें भी इसी अर्थमें इस शब्दका व्यवहार किया गया है। किन्तु यह उनका भ्रम है। महा-भारतले दो-एक श्लोक उद्धत करके यहाँपर काम शब्दका अर्थ समझानेकी चेष्टा की जाती है।
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