बृहस्पतिके सब ग्रन्थ लुप्त हो जानेके कारण यह निश्चय करना कठिन है कि बृहस्पतिने ठीक यही कहा था या नहीं।
प्रत्यक्ष ही ज्ञानकी एकमात्र जड़ है। किन्तु इस तत्त्वमें यूरोपके दार्श- निकों के बीच एक भारी झगड़ा है। कोई कोई कहते हैं, हम लोगोंके ऐसे अनेक ज्ञान हैं जिनके मूलमें प्रत्यक्ष प्रमाण नही पाया जाता। जैसे काल, आकाश आदि।
यह बात समझना जरा कठिन है। आकाशके सम्बन्धमें एक सहज बात ले लीजिए। जैसे—दो समान्तराल रेखायें चाहे जितनी दृरतक घसीटिए, वे कभी मिल नहीं सकतीं। इस तत्त्वको हम निश्चित रूपसे जानते हैं। किन्तु यह ज्ञान हमने कहाँसे पाया ? प्रत्यक्षवादी कहेंगे कि " प्रत्यक्षके द्वारा। हमने जितनी समान्तराल रेखायें देखी हैं वे कभी एकमें मिली नहीं।” इसपर दूसरे पक्षके लोग कहेंगे कि “ जगतमें जितनी समान्तराल रेखायें हई हैं, उन सबको तुमने नहीं देखा। तुमने जिन रेखाओंको देखा है वे अवश्य नहीं मिलीं, किन्तु तुमने यह किस तरह जाना कि कभी कहीं ऐसी दो समान्तराल रेखायें नहीं खींची गईं, या खींची न जायँगी, जो खींचते खींचते एक जगहपर न मिली हों, या न मिलेंगी? जिसे मनुष्यने प्रत्यक्ष देखा है उससे तुमने अप्रत्यक्ष विपयके बारेमें कैसे निश्चय कर लिया? तथापि हम यह जानते हैं कि जो तुम कह रहे हो वह सत्य है—कभी कहीं ऐसी दो समान्तराल रेखायें नहीं हो सकतीं कि वे मिल जायँ । तब यह मानना पड़ेगा कि प्रत्यक्षके सिवा और भी किसी ज्ञानका मूल तुममें है; नहीं तो तुमने यह प्रत्यक्षसे अतिरिक्त ज्ञान कहाँसे पाया ?"
यही कहकर प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कोम्टने लक और ह्यूमके प्रत्यक्षवादका प्रतिवाद किया है। इसके अतिरिक्त ज्ञानके सम्बन्धमें वे यह कहते हैं कि जहाँ बाह्यविषयका ज्ञान हमारी इन्द्रियके द्वारा होता है वहाँ बाह्यविषयकी प्रकृतिके सम्बन्धमें किसी तत्त्वकी नित्यता हमारे ज्ञानसे अतीत होनेपर भी हमारी इन्द्रियोंकी प्रकृतिकी नित्यता हमारे ज्ञानके अधीन है। अपनी इन्द्रियोंकी प्रकृतिके अनुसार हम बाह्यविषयोंकी कुछ निर्दिष्ट अवस्थाओंको प्राप्त
२९