और जीवोंसे वैर बाँधनेवाले पुरुपके मनको शान्ति नहीं प्राप्त होती ॥ २१ ॥ जो व्यक्ति प्राणियोंसे बैर रखता है वह चाहे प्रतिमामें अनेक सामग्रियों और क्रियाओंसे पूजा करे तो भी मैं उसपर सन्तुष्ट नहीं होता ॥ २२ ॥ अपने कर्म करता हुआ पुरुष तभी तक प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा करे, जब तक उसे अपने हृदयमें यह ज्ञान प्राप्त न हो कि मैं सब प्राणियोंमें अवस्थित हूँ॥ २३ ॥ अपने और दूसरेमें जो कोई जरा भी भेदभावना करता है, उस भेदभाव भरे पुरुपको मृत्युसे बहुत ही घोर भय प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ अतएव पुरुषका कर्तव्य है कि वह मुझे सब प्राणियोंका अन्तर्यामी और सब प्राणियोंमें अवस्थित जानकर दान, मान, मैत्री और समदृष्टिके द्वारा मेरी पूजा करे ॥ २५॥
चित्त-शुद्धिके सम्बन्धमें हिन्दूशास्त्रोंसे इस प्रकारकी बहुतसी उक्तियाँ उद्धृत की जा सकती हैं, पर वैसा करनेकी कोई जरूरत नहीं जान पड़ती। हिन्दु- ओंको यह स्मरण रखना चाहिए कि चित्तशुद्धिके विना प्रतिमा-पूजामें कोई धर्म नहीं है। ऐसी अवस्थामें प्रतिमा-पूजा करना व्यर्थकी विडम्बना है।
मनुष्योंको सब प्रवृत्तियोंकी सम्यक् स्फूर्ति, परिणति और सामञ्जस्यके द्वारा यह चित्त-शुद्धि प्राप्त होती है। भक्ति और प्रीति ये दोनों वृत्तियाँ कार्यकारिणी होती हैं। किन्तु केवल कार्यकारिणी वृत्तियोंके अनुशीलनसे धर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञानोपार्जनकी वृत्तियोंके अनुशीलनके विना धर्मके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता। चित्त-रञ्जन करनेवाली वृत्तियोंके अनुशीलनके बिना धर्मके माहात्म्य और सौन्दर्यकी सम्यक् उपलब्धि नहीं होती और चित्तशुद्धिके मार्ग साफ नहीं होते। शारीरिक वृत्तियोंके समुचित अनुशीलनके बिना धर्मानुमोदित कार्योंके उपयोगी क्षमता नहीं पैदा होती और हृदयको भी शान्ति नहीं मिलती। इस कारण सब वृत्तियोंके सम्यक् अनुशीलन और सामञ्जस्यका फल ही चित्तकी शुद्धि है।
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