(८) अलंकारोंके प्रयोग या मज़ाक लानेके लिए चेष्टा न करना। किसी किसी स्थानमें अलंकार या व्यंग्यका प्रयोजन अवश्य होता है; किन्तु लेखकके भंडारेमें यदि यह सामग्री होगी तो प्रयोजनके समय आप उपस्थित हो जायगी और भंडारेमें न होगी तो सिर पटकनेपर भी नहीं आ सकती। असमयमें या भंडारा सूना होनेपर अलंकारोंके प्रयोग या विनोदकी चेष्टाके समान उपहासकी बात और नहीं है।
(९) यह एक प्राचीन विधि है कि जिस स्थानपर अलंकार या व्यंग्य बहुत सुन्दर जान पड़े उस स्थानको काट देना चाहिए। किन्तु मैं यह बात नहीं कहता। पर मेरी सलाह यह है कि उस स्थानको अपने मित्रोंके आगे वारम्वार पढ़ो। अगर वह अच्छा न होगा तो लेखकको आप ही अच्छा न लगेगा—मित्रोंके आगे पढ़नेमें भी लज्जा मालूम होगी। तब उसे काट देना ही ठीक जान पड़ेगा।
(१०) सब अलंकारोंसे श्रेष्ठ अलंकार सरलता है । जो सरल शब्दोंमें सहज रीतिसे पाठकोंको अपने मनका भाव समझा सकते हैं वे ही श्रेष्ठ लेखक हैं। क्योंकि लिखनेका उद्देश्य ही पाठकोंको समझाना है।
(११) किसीका अनुकरण मत करो। अनुकरणमें दोषोंका ही अनुकरण होता है, गुणोंका नहीं । इस बातको कभी मनमें जगह मत दो कि अमुक अँगरेजी, संस्कृत या हिन्दीके लेखकने ऐसा लिखा है तो मैं भी वैसा लिखू।
(१२) जिस बातका प्रमाण न दे सको वह भी मत लिखो। प्रमाणोंके प्रयोगकी यद्यपि सब समय आवश्यकता नहीं होती, तथापि प्रमाणका हाथमें रहना बहुत जरूरी है।
हर एक जातिकी भाषाका साहित्य उस जातिके लिए आशा-भरोसा होता है। उन जातियोंके लेखक यदि इन नियमोंपर ध्यान रखेंगे तो उनकी भाषाके साहित्यकी श्रीवृद्धि शीघ्रताके साथ होगी।
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