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पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/९१

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बंकिम निबन्धावली—
 

करेगा और कोई चोरको पुरस्कार न देगा। चाहे जो राजा हो, हम उसके लिए कुछ आपत्ति न करेंगे।"*

हम इस समय स्वतन्त्रता-प्रिय अँगरेजोंके निकट शिक्षा प्राप्त करके इन सब बातोंके भ्रमको जान रहे हैं। किन्तु किसी जातिका दूसरी जातिके द्वारा शासन होना अस्वाभाविक भी नहीं है—इसकी भ्रान्तिका सहजमें अनुमान भी नहीं किया जा सकता। प्रकृतिके अनुसार कोई जाति असभ्यताके समयसे ही स्वातन्त्र्यप्रिय है और कोई जाति सुसभ्य होकर भी उसके प्रति आस्था-रहित है। इस संसारमें अनेक स्पृहणीय वस्तुयें हैं। किन्तु सब लोग सभी चीजोंको पानेकी चेष्टा नहीं करते। धन और यश दोनों ही स्पृहणीय पदार्थ हैं। किन्तु साधारणतः हम देख पाते हैं कि कोई धनसञ्च- यमें ही लगा हुआ है, यशका उसे कुछ भी खयाल नहीं, और दूसरा आदमी यशको चाहता है, यशके लिए धन लुटाने में उसे कुछ भी संकोच नहीं। मोहन धनसञ्चयको ही अपने जीवनका व्रत बनाकर कृपणता, नीचता आदि दोषोंसे यशकी हानि कर रहा है और सोहन अमित धन लुटाकर उदारता आदि गुणोंसे यशका सञ्चय कर रहा है। मोहन भ्रान्त है या सोहन, इसका निर्णय करना सहज नहीं है। कमसे कम यह निश्चय है कि दोनोंमेंसे किसीका कार्य स्वभावविरुद्ध नहीं है। इसी रह ग्रीक लोग

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* हम यह नहीं कहते कि भारतमें कभी कोई स्वातन्त्र्यप्रिय जाति नहीं थी। जिन्होंने टाड-राजस्थानमें मेवाड़के राजपूतोंकी अपूर्व कथायें पढ़ी हैं वे जानते हैं कि राजपूतोंके समान स्वतन्त्रताके लिए उन्मत्त जाति पृथ्वीपर दूसरी नहीं देख पड़ी। उस स्वातन्त्र्य-प्रियताका फल भी बड़ा विचित्र देख पड़ता है।मेवाड़ एक क्षुद्रराज्य होकर भी छः सौ वर्ष तक मुसलमानी साम्रा-ज्यके बीचमें स्वाधीन हिन्दूराज्यकी राजपताका उड़ाता रहा । अकबर बादशाह- का बल और कौशल भी मेवाड़का ध्वंस नहीं कर सका। अभीतक उदयपुरका राजवंश पृथ्वीपर प्राचीन राजवंश कहकर प्रसिद्ध है। किन्तु अब उसका वह दिन नहीं है । वह राम भी नहीं हैं, और वह अयोध्या भी नहीं है । ऊपर हमने जो कहा है वह सर्वसाधारण हिन्दुओंके विषयमें ठीक है।

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