पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/९६

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भारत-कलंक।
 

हम यह नहीं कहते कि भारतवर्षमें, किसी भी समयमें, यह जाति-प्रतिष्ठा थी ही नहीं। यूरोपके पण्डितोंने यह निश्चय किया है कि आर्यजातिके लोग सदासे भारतवर्षके रहनेवाले नहीं हैं। अन्यत्रसे भारतमें आकर उन्होंने उसपर अधिकार किया है। पहले आर्योंने जब जय प्राप्त की, तब वेद आदिकी सृष्टि हुई, और उसी समयको पण्डित लोग वैदिक काल कहते हैं। वैदिक मन्त्र आदिमें इसके अनेक प्रमाण पाये जाते हैं कि वैदिक कालमें और इसके कुछ उपरान्त भी आर्य लोगोंमें जातिप्रतिष्ठाका भाव विशेष प्रबल था। उस कालके समाजके नियामक ब्राह्मणोंने जिस प्रकार समाज-शृंखला स्थापित की थी, उससे भी जातिप्रतिष्ठाके भावका परिचय प्राप्त होता है। आर्यवों में और शूद्रोंमें जो विषम भेद देख पड़ता है—आर्यवर्गों और शूद्रोंके शासनमें जो आकाश-पातालका अन्तर देख पड़ता है, वह भी जाति- प्रतिष्ठाके भावका ही फल है। किन्तु क्रमशः आर्य-वंश विस्तृत हो पड़ा और तब वह जाति-प्रतिष्ठाका भाव नहीं रहा। आर्यवंशके लोगोंने विस्तृत भारतवर्षके अनेक प्रदेशोंपर अधिकार करके स्थान स्थानपर एक एक खण्ड-समाजकी स्थापना की। भारतवर्ष इस प्रकारके बहुतसे खण्ड-समाजोंमें बँट गया। समाज-भेद, भाषा-भेद, आचार-व्यवहारका भेद, अनेक भेद अन्तको जाति-भेदके रूपमें परिणत हो गये । बाल्हीकसे पौण्ढ़ तक, काश्मीरसे चोल और पाण्ड्य तक, सारी भारतभूमि मधुमक्खियोंसे परिपूर्ण शहदके छत्तेकी तरह अनेक जाति और समाजोंसे परिपूर्ण हो गई। अन्तको कपिलवस्तुके राजकुमार शाक्यसिंहने एक अभि-नव धर्मकी सृष्टि की। अन्यान्य भेद तो मौजूद ही थे, धर्मभेद भी उत्पन्न हो गया। देशभेद, भाषाभेद, राज्यभेद, धर्मभेदके आगे एकजातीयता कहाँ टिक सकती थी? सागरके भीतरके मत्स्यदलकी तरह भारतवर्षके लोग एकतासे शून्य हो गये। उसके बाद मुसलमान आये। मुसलमानोंका वंश भी यहाँ बढ़ने लगा। उसके बाद सागरकी लहरके ऊपर लहरकी तरह नये नये मुसलमान-सम्प्रदाय पाश्चात्य पर्वतमाला पार होकर आने लगे। इस देशके हजारों आदमी राजाकी कृपाके लोभसे या राजाके द्वारा सताये जानेके डरसे मुसलमान होने लगे। अब भारतवर्षके निवासियोंमें हिन्दू

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