बगुला के पंख १०३ 'कैसे कण्ट्रैक्ट ?' 'वह मैं फिर बताऊंगा।' 'लेकिन यह तो बहुत भारी रकम है ?' 'तो लाओ, ज़रा हलकी कर दूं ।' नवाब ने पर्स में से पांच हजार रुपये निकालकर अपनी जेब के हवाले किए। बाकी पर्स जुगनू के आगे फेंक दिया । रैस्टोरां का नौकर चाय ट्रे में सजा लाया। एक-एक प्याला चाय पीकर दोनों दोस्त बाहर निकले । 'बहुत वक्त हो गया । अब तुम जाकर आराम करो। लेकिन याद रखना, इन मामलों का ज़िक्र किसीसे न करना। नवाब के कारोबार तुम्हारे और नवाब के ही बीच में रहें।' वह हाथ मिलाकर एक ओर चल दिया। जुगनू बड़ी देर खोया-सा खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे वह भी डेरे की ओर चल दिया। २९ दरियागंज में एक उम्दा नया फ्लैट ले लिया गया। बढ़िया फर्नीचर से उसे सजा दिया गया। एक चपरासी और एक नौकर सेवा में मुकर्रर हो गए। जुगनू अब ठाठ से अपने फ्लैट में रहने लगा। कौन कह सकता था कि वह वही आवारागर्द भंगी है जो गन्दी खाकी पैण्ट पहने इस दिल्ली में आया था। दिल्ली शहर भी एक करामाती शहर है ; जिसका हाथ पकड़ा, निहाल कर दिया । जुगनू के सितारे बुलन्दी पर थे। अब उसकी चांदी ही चांदी थी उसका घर अब दिल्लीवालों के लिए इबादतखाना बन गया था। लोग आते थे, जाते थे। बहुत लोग बहुत गर्ज़ लेकर आते थे। बहुत लोग कांग्रेस के काम से आते थे। बहुत लोग महज़ दोस्ती-मुलाकात के लिए ही उसकी ड्योढ़ी पर सिजदा करते थे। एक नौकर हर वक्त आने-जानेवालों के लिए चाय बनाता रहता था। नवाब का हुक्म था-कोई आदमी चाहे भी जिस मतलब से आए, चाय' और पान से अवश्य उसकी खातिर की जाए और उसका काम यथाशक्ति तुरन्त कर दिया जाए। नवाब ने जुगनू को एक यह भी गुरुमन्त्र दे दिया था
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