बगुला के पंख १०७ लाला फकीरचन्द का काम आसानी से हो गया। कोई आठ-दस लाख के अनेक ठेके उन्हें मिल गए। जुगनू को लाला बुलाकीदास से उनके कण्ट्राक्टों पर दस्तखत कराने तथा मीटिंग में पास कराने में कोई कठिनाई न हुई । लाला फकीरचन्द अब जब-तब उसके यहां आते थे। फोन पर बहुधा बातें करते थे। हफ्ते में एकाध वैसी ही छोटी-बड़ी दावत हो जाती थी। लाला फकीरचन्द अपने को बड़े खुशदिल समझते थे। मुक्त हस्त से उपहार देते थे। दरी, कालीन, पंखे, टी-सेट, बर्तन, खाने-पीने की चीजें निरन्तर किसी न किसी बहाने से आती ही रहती थीं। पर जुगनू एक बुद्धिमानी का काम करता था। अपने इन आवारागर्द तरुण दोस्तों को लाला फकीरचन्द से चस्पां करता रहता था। वह बहुधा एक स्लिप लिखकर किसी भी तरुण को लाला फकीरचन्द के पास भेज देता। स्लिप में केवल एक वाक्य होता, 'पत्रवाहक को मैं आपके पास भेज रहा हूं।' और लाला फकीरचन्द को उसे निश्चय ही कोई काम देना पड़ता था। इस प्रकार लाला फकीरचन्द के विविध कामों में ऐसे सैकड़ों तरुण लग रहे थे जो जुगनू की सैनिक कोर के सिपाही थे। लाला बुलाकीदास जुगनू से बहुत खुश थे। सब काम उसपर छोड़ वे अपने व्यापार-बिजनेस में लगे थे उनक, नाम पर जुगनू को सब स्याह-सफेद करने का अधिकार था। ३० तीन महीने बीत गए। शोभाराम को फिर बीमारी का दौरा हुआ। वे बहुत कमज़ोर हो गए थे। एक दिन शाम को जुगनू उन्हें देखने उनके घर गया। घर पर अकेली पद्मादेवी ही थी। वह बहुत थकी और उदास थी। पलंग पर लेटी किसी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी। जुगनू को देखकर वह हड़बड़ाकर उठ बैठी । जुगनू ने कहा, 'भाई साहब कहां हैं ?' 'वे डाक्टर के यहां गए हैं।' 'मैंने सुना था कि तबियत फिर खराब हो गई है, इसीसे सोचा चलो ज़रा देख आऊ ।' उसने कनखियों से उसकी ओर देखा। वह पलंग से उठ खड़ी हुई
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