पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/११०

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१०८ बगुला के पंख थी। नीची नजर किए वह अपने हाथ की पत्रिका को तोड़-मरोड़ रही थी। इस समय यद्यपि वह बहुत थकित और दुर्बल दीख रही थी, परन्तु अचानक जुगनू के आने से लज्जा की लाली और असमंजस की उलझन उसके मुख पर फैल गई थी । इस कारण वह बड़ी सुन्दर प्रतीत हो रही थी। वह आकर्षक, कोमल और सुन्दर तो थी ही, परन्तु इस समय उसकी सुषमा देखकर जुगनू उत्तेजित हो गया। इसी समय पद्मा ने कहा, 'उनकी तबियत खराब होने की खबर न पाते तो शायद न पाते।' जुगनू के कान में ये शब्द धुंघरू की झनकार की भांति गूंज उठे। उसे ऐसा लगा कि सामने एक पका फल है । उसे हाथ बढ़ाकर तोड़ लेने भर की देर है । उसने कहा, 'क्या कहूं, काम इतना है कि दम मारने तक की फुर्सत नहीं मिलती।' 'तो आज फुर्सत मिली !' पद्मादेवी ने ज़रा धीमे स्वर में कहा । ऐसा प्रतीत होता था कि वह कांप रही है। जुगनू ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया और फिर उन्मत्त की भांति उसे खींचकर सीने से लगा अपने जलते होंठ उसके अधरों पर धर दिए। 'ओह, क्या करते हो ?' कहती हुई वह छटपटाने लगी। उसने बड़ी कठिनाई से अपने को छुड़ाया और हांफती हुई वस्त्र ठीक करने लगी। जुगनू ने कहा, 'इसी कारण मैं नहीं आता था। तुम्हें देखते ही मैं आपे में नहीं रह सकता। जब से गया हूं एक पल को भी नहीं भूला हूं। बस, जलते- भुनते हुए दिन-रात बीतते हैं । अब कब तक जलू , तुम्ही कहो।' 'अकेले क्या तुम्ही जल रहे हो ?' 'ओह, तो क्या तुम भी...' जुगनू फिर उसे बाहुपाश में बांधने को आगे बढ़ा। पर पद्मादेवी ने उसे रोककर कहा, 'पागलपन मत करो, उनके आने का समय हो रहा है। 'लेकिन तुम अनुमान नहीं लगा सकतीं। मैं मर रहा हूं।' 'ऐसी बात क्यों कहते हो ?' 'मैं मर जाऊंगा । मैं ज़िन्दा नहीं रहूंगा।' पद्मादेवी का सारा शरीर पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगा। उसके मुंह से बात नहीं निकली। जुगनू ने फिर आगे बढ़कर उसे अपने बाहुपाश में