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बगुला के पंख
 

कहीं नौकरी करने को हाथ-पैर मारे । दिल्ली में एक प्रेस में स्याही लगाने की उसे नौकरी मिली भी, पर एक सप्ताह से अधिक न चली । वह वहां से निकाल दिया गया। अब वह हर ओर से विवश होकर फिर घर आ गया। उसका बाप मर चुका था। और सौतेली मां ने दूसरा आदमी कर लिया था। वह उसीके बाप के घर में रहता था। उसकी बहन और उसके बच्चे वहां से निकाल दिए गए थे । वह बच्चों को लेकर दूसरे गांव चली गई थी। उसके भाई अब सयाने हो गए थे। सबसे बड़ा नैनीताल चला गया था, वहां उसकी नौकरी लग गई थी। बाकी यहां आवारागर्दी करते फिरते थे । जुगनू को उसकी सौतेली मां ने और उसके आदमी ने वहां एक दिन भी ठहरने न दिया। साफ कह दिया कि उस घर में उसके लिए जगह नहीं है । आत्मीयता और घरेलू वातावरण की तो बात क्या थी, वहां तो पैर रखने तक की गुंजाइश न थी।

वह भाइयों से अपने भाई का पता पूछकर नैनीताल आया । यहां आकर देखा, उसका भाई सरकारी कोठियों में मेहतर का काम करता है। कभी अपने मालिक साहब लोगों के साथ वह नैनीताल आ चुका था, तब वह मुंशी बना हुआ था। पर अब तो यहां का वातावरण ही बदला हुआ था। ब्रूकहिल पर जहां कभी किसी हिन्दुस्तानी को जाने तक की इजाजत न थी, गोरे ही गोरे रहते थे, अब एम० एल० ए० और ऐसे ही दूसरे लोगों की भरमार हो रही थी जिनमें बहुतेरे देहाती-गंवार और उजड्ड थे । न ये सफाई-पसन्द थे,. न शाह-खर्च । बड़ी-बड़ी कोठियों में मिनिस्टर और सेक्रेटरी जो रहते थे, वे सब देखने में तो उज्ज्वल खद्दरपोश थे, पर नौकर-चाकरों के लिए सूखे ढूंठ थे । अब न नौकरों को इनाम-बखशीश मिलती थी, न आराम। खासकर भंगी के लिए तो अब केवल भंगी के काम को छोड़कर दूसरा काम ही न था। ये अछूतोद्धार करने वाले कांग्रेसी न उन्हें छू सकते थे, न उनका छुना खा सकते थे। केवल उन्हें हरिजन का खिताब देकर उनके प्रति अपनी सब ज़िम्मेदारी से पाक-साफ हो गए थे।

उसके भाई की हालत यहां गांव से भी बदतर थी। तनख्वाह उसे अवश्य पैंतालीस रुपया माहवार मिलती थी, परन्तु उसे दिन-भर निरन्तर पायखाने साफ करने पड़ते थे। हर पांच मिनट में उसे टोकरा उठाकर कमोड साफ करना पड़ता था और उसका यह सिलसिला सुबह चार बजे से लेकर रात के