पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१२

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बगुला के पंख
 

१० बगुला के पंख बारह बजे तक चलता था। दो ही दिन में यहां से उसका मन भिन्ना गया और वह भाग खड़ा हुआ। एक बार उसने फिर गांव जाने की सोची, पर उसका मन आगे न बढ़ा । वहां जाए कहां? रहे कहां ? करे क्या ? वह जीवन से निराश हो गया। बार-बार उसे अंग्रेज़ याद आ रहे थे, जिनके संसर्ग से वह भंगी से मुंशी बन गया था । उसका जीवन बदल गया था। परन्तु अब वह फिर भंगी का भंगी था। उसके सुधार की, विकास की अब कोई आशा नहीं थी। वह कभी निराशा में डूब-उतराकर आत्मघात की सोचता, कभी क्रोध में भरकर कांग्रेसियों को गाली देता, कभी दुःख में भरकर रो पड़ता । बहुधा उसे भूखा सड़क के किनारे सोना 'पड़ता । भंगी का काम वह कर ही न सकता था और दूसरा काम कोई उसके अनुकूल मिलता न था । अब करे तो क्या करे ? वह फिर मुरादाबाद आ गया। वहां उसने राज-मजदूरों के साथ गारा-मिट्टी ढोने का काम शुरू किया। वहां उसने सुना-दिल्ली में बहुत मकान बन रहे हैं। मजदूरी भी खूब अधिक 'मिलती है। वहां काम बहुत है । बस उसने दिल्ली आने की ठान ली और अन्ततः वह एक रात मुरादाबाद पैसेन्जर से वहां से रवाना होकर दिल्ली आ 'पहुंचा। २ दिल्ली में बड़ी भीड़भाड़ थी। लालकिले पर तिरंगा फहराया जाने वाला था । सैनिक परेड और झांकियां निकलने वाली थीं। दूर-दूर से लोग इन्हें देखने आए थे। जुगनू की धज इस समय ऐसी थी कि वह इस समय न मुंशी जगनपरसाद था, न मुश्ताक अहमद । उसने रात-भर जागकर सफर किया था। रात उसने कुछ खाया भी नहीं था। इससे भूख और थकान से उसका शरीर 'पस्त हो रहा था। कपड़े भी उसके बहुत गलीज़ थे । स्टेशन से बाहर निकल- कर उसने जेब में हाथ डाला–कुल तीन रुपये और कुछ रेजगारी उसकी जेब में थी। कुछ देर वह रेजगारी को गिनता रहा । फिर उसने अपने चारों ओर 'फैली हुई भीड़भाड़ को देखा। सब अपनी-अपनी धुन में थे। नर-नारियों के