१२० बगुला के पंख हकीकत यह थी, राधेमोहन जुगनू से परिचित होने को अत्यन्त बेचैन था । पर यहां भी उसे जुगनू से बात करने का अवसर नहीं मिला। शारदादेवी ने अपना भाई कहकर परिचय भी दिया, पर इस समय जुगनू का ध्यान इधर-उधर बह रहा था। उसे बहुत आदमी घेरे हुए थे। शारदादेवी के साथ वह जब घर लौटा तो घर पर परशुराम शारदा की प्रतीक्षा कर रहा था। परशुराम एक दृढ़ स्वभाव का पुरुष था। वह चरित्रवान भी था। मिज़ाज का तीखा और स्पष्ट वक्ता था। राधेमोहन से परशुराम का परिचय कराते हुए शारदा ने कहा, 'मास्टर साहब, आप ज़रा राधे भाई साहब को ले जाकर मुंशी से परिचय करा दीजिए।' 'क्यों?' 'ये मुंशी पर लट्टू हैं । खुद भी कवि हैं । मुंशी भी कवि है ।' 'हां भाई साहब, आपकी बड़ी कृपा होगी। मैं चाहता हूं कि मुंशी से मेरा परिचय हो जाए। 'वह जानवर है ।' परशुराम ने जैसे लाठी की चोट की। शारदा परशुराम का मुंह ताकने लगी। उसके चेहरे पर कठोरता उभर रही थी। राधेमोहन ने कहा, 'आप गाली क्यों देते हैं साहब ?' 'गाली नहीं देता हूं सिर्फ यह कहता हूं, मुंशी जानवर है ।' 'आदमी को जानवर कहना गाली नहीं है।' 'नहीं, यदि आदमी के भीतर जानवर की आत्मा हो तो उसे जानवर कहना ही चाहिए? 'खैर, जानवर ही सही । मैं उनसे मिलना चाहता हूं। आप मेरा उनसे परिचय करा दीजिए। 'वह करीब-करीब रोज़ ही शाम को दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी में जाकर बैठता है । वहां तुम उससे मिल सकते हो । या घर पर । पर अब तो वह बड़ा आदमी बन गया है । मिलना हो तो लाइब्रेरी ही में मिलना।' राधेमोहन उसी शाम दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जा पहुंचा । उसने देखा, वह एक कोने में टेबल के किनारे बैठा, बड़े मनोयोग से कोई पुस्तक पढ़ रहा था। वातावरण गर्म था । हवा बन्द थी, पर वहां पंखा इस कमी की पूर्ति कर रहा था।
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