बगुला के पंख १२१ . वाचकों की भीड़भाड़ थी, पर शोर कतई न था। राधेमोहन चुपचाप उसके पास जाकर बैठ गया। एक पत्रिका उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा। जुगनू ने उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। वह मनोयोग से अपनी पुस्तक पढ़ता रहा । बहुत देर बाद उसने पुस्तक बन्द की और एक अंगड़ाई ली । राधे- मोहन ने नमस्कार करके अपना नाम बताया और कहा, 'उस दिन डा० खन्ना के यहां आपके दर्शन हुए थे । मैं आपसे मिलना चाह रहा था।' 'क्यों ?' जुगनू ने रुखाई से कहा । परन्तु इसकी तनिक भी परवाह न करके राधे ने कहा- I'आपकी कविता मुझे पसन्द । शारदा ने आपकी बहुत तारीफ की है, वह मेरी चचेरी बहिन होती है।' जुगनू ने एक मिनट तक उसे घूरकर देखा । फिर कहा, 'उस दिन स्टेशन पर भी तुम शारदादेवी के साथ थे । क्या करते हो तुम ?' 'मैं आर्टिस्ट हूं साहब, यहां एक स्कूल में ड्राइंग-मास्टर हूं, पर कविता का मुझे भी शौक है।' 'अच्छा ही है।' जुगनू ने उपेक्षाभाव से कहा। 'पर आप तो जादू करते हैं जादू ।' 'यह तुमसे किसने कहा ?' 'शारदा ने । वह तो आपकी कविता पर दीवानी है। जब आपकी बात करती है, बस उसकी ज़बान ही नहीं रुकती।' जुगनू यद्यपि मूढ़ पुरुष था, पर उसने राधे की मूर्खता को प्रत्यक्ष देख लिया और कहा- 'लेकिन, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं ?' 'मैं एक कलाकार हूं साहब, कोई गरज़मन्द आदमी नहीं हूं। मैं आपसे कुछ मांगता थोड़े ही हूं ? मैं तो आपकी कविता पर मुग्ध हूं। आपका प्रशंसक हूं।' 'तो मुझे इसकी क्या परवाह है ?' 'आप बड़े आदमी हैं महाशय, आपको किसीकी परवाह नहीं। पर मैं तो आपका भक्त हूं। खासकर मेरी स्त्री ।' 'तुम्हारी स्त्री ?' जुगनू को एक कौतूहल हुआ । 'जी हां, कविता का उसे बेहद शौक है । उसने आपकी कविता डा० खन्ना के मकान पर सुनी थी, तभी से वह आपपर मुग्ध है।' 'लेकिन मैंने तो उसे देखा तक नहीं है।'
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